कविता-कानन
दूरियाँ
मेरी और उसकी
ऊँगलियों के बीच
सिर्फ चार पल की दूरी थी
पर हर इक पल के
अंतराल में
एक आसमान का विस्तार खड़ा था।
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नज़दीकियाँ
हम दोनों
अलग-अलग धरतियों के
निवासी थे
पर उसकी धरती से
बहती नदी
मेरी धरती के समुद्र में
मिलती थी।
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सोया हुआ ईश्वर
ईश्वर को नींद आई थी
तब बह रहीं थी नदियाँ
खिल रहे थे पुष्प
निकला हुआ था चाँद
यह ईश्वर के सोने का सही समय था
ठीक इसी समय
सो रहे थे सारे इंसान
जागते थे उनके स्वप्न
कहीं दूर छेड़ी थी किसी ने बाँसुरी की तान
घर के आँगन में फैलती थी
मोगरे और रातरानी की सुगंध
ईश्वर सोया हुआ था
सिर्फ जागते थे बिछुड़े प्रेमी
अपने-अपने हिस्सों की
यादों के साथ
जागा हुआ था सारा आसमान
सितारों की करवटों के साथ
कुछ चूल्हों की बुझ चुकी थी आग
जाग रही थी अधभरे पेटों की भूख
सो रहा था भगवान
कर रही थी पृथ्वी प्रदक्षिणा
जागते थे कुछ पेड़
पंछियों के घोसलों को अपनी
टहनियों में थाम
जागती थी कुछ हथेलियाँ
उर से लगाई संतान की पीठ पर
थपकियों के साथ
सोते-सोते मुस्कुरा रहा था
बेफ्रिकी की नींद ले रहा था
भगवान
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बार-बार
एक नदी बुलाती है मुझे
बार-बार
बिना वजह डूब जाने को
मैं खड़ा रहता हूँ
सूखी ज़मीं पर
अपने तलुओं को भीगने से
बचाने को
उसी पुल से गुजरता हूँ
मैं बार-बार
नीचे जो बह रहा है दरिया
आव़ाज देता है हज़ार बार
सुननी है उसकी कहानी
गोद में बैठ एक बार
एक कश्ती है दूर जाती हुई
चप्पूओं के पानी में गिरने की थपाक
हर शाम वही जद्दोजहद
खुद को डूबने से बचाने की
कोई झरना है
फूटता है मेरे अंतस से
गुफाओं से गुजर
खोजता हूँ
मैं उसका मूलद्वार
मेरी उनींदी आँखों का अर्धसत्य
मुझे मालूम है
जो कहीं नही पहुँचाता
चलता हूँ
उसी पथ पर बार-बार
– संजय पटेल