कविता-कानन
दूब
चलते-चलते
दूब की धानी कोंपल खींच
ठहाका लगा, बोला–
ऐ री! ऊपर उठने का दंभ करती है
आँधी-तूफ़ान से झिंझोड़ी भी
तनी रहती है
एक ठोकर खा दूब
थरथरा कर नि:शब्द
धरा पर बिछ गई
अगली सुबह
धूप की गुनगुनाहट
वही- सरस हवा का झोंका
वही- केकारव और भ्रमरों का गुंजन
दूब धीरे-धीरे सिर उठा
मुसकराने लगी
अपनी जड़ों से मजबूत
नन्हीं नरम कोंपलें
तन कर खड़ी हो गईं
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बर्फ़
बर्फ़ ठण्डी है सोच
ताप से झुलसते हाथों में थाम ली
उसकी ज्वलनशीलता
असहनीय हो गई
वह छूट कर धरती पर गिर गई
गिरते ही खण्ड-खण्ड हो
पिघलने लगी
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टूटना
पहले बाढ़ आती है
फिर कगारें टूटती हैं
बाढ़ को ख़बर नहीं होती
बाहर जो चटकता है
उसकी आवाज़ हवा में गूँजती है
हवा को उसका आभास तक नहीं होता
विचार टकराते हैं
मन खण्ड-खण्ड आँसुओं में
डूब जाता है
आँसुओं को ख़बर नहीं होती
फिर, पानी मिट्टी बहा लाता
कगारें फिर बन जातीं हैं
हवाएँ गूँजते शब्द-शब्द को
सँभाले रखती हैं
परन्तु आँसुओं की धाराएँ
मन की धारा में बहकर
टूटे मनों को फिर जोड़ नहीं पातीं
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कामना
आओ एक सुन्दर सपना
साकार करें
उगता सूरज देखें
साँझ के धुधलके से झाँकती
सूर्य की लालिमा को
आँखों में बसा लें
अँधेरी रातों में
तारों की मुस्कान देखें
रजनीगंधा बन
चाँदनी रातों में
चाँद की शीतलता घूँट-घूँट पी लें
भुला दें विघटन,आतंक
विकास के हाथों विनाश का ताण्डव
भूल जाएँ घने अँधेरे में
अपने मूल्यों को खोना
अपने सुपथ से भटकना
अपना सब कुछ गँवा देना
सुनो-
भोर की भैरवी गुनगुना रही है
आओ!
सारा सोमरस (प्रेम रस)
अँजुरी में भर लें
– पुष्पा मेहरा