कविता-कानन
दूब
तुमने आजमाये
तमाम हथियार
कुदाल, खुरपी से
लेकर बुलडोजर तक
तुमने रौंदना चाहा
अपने तलवों से लेकर
ट्रकों के पहियों तक
जब जब तुम्हें लगा
सूख चुका हूं तब तब
मैं हरियाता रहा
भीतर ही भीतर
दूब हूँ
लॉन से लेकर
तुम्हारे बगीचे तक
बिना खाद-पानी के
बार बार
उग आता हूँ
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थ्रेसर
खलिहान नहीं था
हमारा चौपाल था
जिसके होने से
हम थे
थे हमारे छोटे-बड़े सुख
खलिहान ही तय करता था
किसे मिलेगी नयी बण्डी
बहन की शादी पर
और बड़का पढ़ने जा पायेगा
या नहीं
दिल्ली बनारस
इसलिए हम बच्चों का
उत्सव था
खलिहान का बनना
समय की
देशी परख की तरह
वर्तुल घुमते बैलों के
खुरों से
मिट्टी का सख्त होना
नये जीवनानुभव का
पांव-पांव गुजरना था
खलिहान की गरमी से
चलती थी लुहार की भट्टी,
कुम्हार का पहिया,
मोचीराम की रापी,
बढ़ई के बसुले की
धार होती थी पैनी
प्रगति के
बढ़ते कद के साथ
कम होती गयी
खलिहान की परिधि
और एक दिन
खड़ा किया गया
थ्रेसर खलिहान की जगह
जिसमें गति थी
और शोर भी
हमारे युग का
नया साहूकार था यह
– डॉ. गंगाधर ढोके