गीत-गंगा
दिल्ली कितनी दूर
पता चला
दिल्ली में रहकर
दिल्ली कितनी दूर
बस, मेट्रो
पैदल, ऑटो से
दिन-दिन भर का चक्कर
सिर्फ़ डिग्रियाँ
काम न आतीं
बोल रहे हैं दफ़्तर
कोर्स सभी
ठिगने लगते हैं
मन लगता मजबूर
चमगादड़
बनकर महँगाई
मँडराती है सिर पर
और हाँफती
साँसें जीतीं
लम्हा-लम्हा डरकर
सपनों को
आधा कर देना
दिल्ली का दस्तूर
रात-रात भर
जगती रातें
रेस खत्म कब होती
दिल्ली मुश्किल
से ही दो पल
कभी नींद में सोती
लेकिन दिल्ली
में रहना भी
देता एक गुरूर
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लड़कियाँ बागी नहीं होती
देखता हूँ
पंख फैलाये
मचलती तितलियाँ
सोचता हूँ
लड़कियाँ बागी नहीं होतीं
बताओ क्यों
स्वप्न बनती
ज़िंदगी का
खिड़कियों से झाँकना
एक जोड़ी पैर
बनकर
द्वार घर का लांघना
रीत है पर
लिंग मुझको
जब बताती आँधियाँ
सोचता हूँ
लड़कियाँ बागी नहीं होती
बताओ क्यों
बाँस वन में
करचियों
जैसी लचीली, लचकती हैं
आँख से
सारा धरातल
पल दो पल में परखती हैं
सत्य है यह
पर लचक से
जब नहीं बनती धनुरियाँ
सोचता हूँ
लड़कियाँ बागी नहीं होती
बताओ क्यों
सीखती हैं
वक्त से
निर्माण की सारी कलाएँ
उम्र भर
जो हैं निभातीं
ज़िन्दगी से आस्थाएँ
क्यों नहीं वो
मान पातीं
खनखनाती चूड़ियाँ
सोचता हूँ
लड़कियाँ बागी नहीं होती
बताओ क्यों
– राहुल शिवाय