कविता-कानन
दादी और कपोत
शांति के अग्रदूत कपोत!
एक शांतिप्रिय पक्षी होने के साथ-साथ
तुम्हारी प्रतिष्ठा एक संदेशवाहक के रूप में सर्वविदित है।
तुम्हारे चेहरे पर व्याप्त शांति, करुणा
और अहिंसा का भाव
हृदय को द्रवित
और
आँखों में शील का भाव
उत्पन्न करता है,
राजा शिबि की परीक्षा में
तुम भी सहभागी बने थे।
दादी कहती थी-
इनका बसेरा ठीक नहीं है
ये एकांत प्रिय हैं।
ये जिस जगह रहते हैं-
उसे खंडहर बना देते हैं।
इनकी आवाज़
ले जाती है
बियावान की ओर।
अब दादी नहीं रहीं
रह गए सातों विद्या पास होने का आशीर्वाद
और उनके ढेर सारे उपदेश।
मैंने
उनके उपदेशों पर
कभी मीनमेख नहीं किया,
क्योंकि अपने बुजुर्गों के प्रति
असहमति व्यक्त करना
उन्हें उपदेश देना
उनसे प्राप्त होने वाले स्नेह में
खुरदुरापन लाना है।
अब
दादी की अनुपस्थिति को
अनुभव करता हूँ
निरंतर, काल दर काल
उनका प्यार-दुलार
पग-पग पर प्राप्त सुझाव
स्नेह और संस्कार
सुसंस्कृत होने का ताना-बाना और सब कुछ।
किंतु कपोत पर
प्राप्त उनके तर्क अब
सोचने पर विवश करते हैं।
कपोत
अब घर के झरोखों से
आ गए हैं
चौराहे के बीचो-बीच
लोहे की सघन चहारदीवारी में
प्रदर्शन के निमित्त
बच्चों के आकर्षणस्वरूप और
उत्सुकता के केंद्र,
जहाँ अकसर लोग
उन्हें दाना डालने के
लिए दिखाई देते हैं आकुल-व्याकुल
और उत्कंठित।
कपोत,
बाज़ार में रहकर भी-
बाज़ार की उपलब्धियों से वंचित…दूर…बहुत दूर…।
कपोत!
तुमने
किसी के घर को
खंडहर नहीं बनाया
नहीं किया किसी को दुनिया से
निर्वासित
अपनी आवाज़ से
नहीं दुखाया किसी का दिल
नहीं ले गए किसी को
बियावान की ओर
बल्कि देते रहे
शांति, अहिंसा और करुणा का संदेश।
और
मनुष्य!
जिस पर था प्रकृति के
संरक्षण का दारोमदार
वह नहीं रहा कभी शांत
नहीं रहा कभी
सहिष्णु
अहिंसक
और मूल्यों का पालक
नहीं ली उसने कपोत से
कभी
शिक्षा या दीक्षा
भगवान दत्तात्रेय की तरह।
समस्त
…जलचर
…थलचर
…नभचर
क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर
सबके लिए बन गया
राहु और केतु
प्रकृति को बना दिया
बियावान और कुरूप
अपने बाप की बपौती समझकर।
अपने उदर को
बना लिया है कब्रिस्तान
जहाँ पहुँचकर कागजी ने
कभी किया था अखिल ब्रह्मांड
का दर्शन।
समूह में रहने का अभ्यस्त
किंतु
सामूहिकता का परम शत्रु
नितांत आत्मकेंद्रित
चराचर जगत् के अधिष्ठाता होने का भ्रम
और श्रेष्ठ योनि में होने का दम्भ
स्वयं में निर्वासित
अजनबीपन का शिकार
जहाँ संवाद के लिए
कोई अवसर नहीं।
मनुष्य…!
क्या
तुम कपोत से बेहतर हो…?
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प्रायश्चित
अरे, कागजी!
तुम तो अब भी काले हो!
धूतपाप में नहाकर तुम तो-
श्वेतवर्णी हो गये थे,
तुम्हें ही प्रतिमान मानकर
राघव ने प्रायश्चित कर लिया था।
अन्याय के संहार का
प्रायश्चित
हिंदुस्तान का सत्य है।
तभी तो देश का प्रतिनिधि
इस शब्द से आतंकित है,
वह जानता है-
कागजी कलुषित हो गये हैं।
गंगा दशहरा का पर्व
आदि गंगा गोमती
सफेदी लाने में अक्षम हैं।
कागजी काले भले!
रघुवर!
ज्ञान-विज्ञान का शोधार्थी
त्रेता के विकास का प्रतीक
प्रकृति का संचालक
आततायी विप्र के वध का
प्रायश्चित, क्या
…आदि गंगा गोमती!!
हे राम!
मर्कट वध
जानकी निर्वासन और
शम्बूक वध के प्रायश्चित में
कौन-सा पक्षी रंग बदलेगा…?
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चिरंजीवी
हे श्रद्धास्पद!
तुम्हें चिरंजीवी होने का आशीर्वाद प्राप्त है
तुम अजर, अमर और
विगत सहस्त्राब्दियों के–
चिर साक्षी रहे हो
वर्तमान भी तुमसे छिपा नहीं है।
अनादि काल से जगत् के
लीलाविलास को तुम भी देखते रहे हो
पर
कांक्रीटों के जंगल में
गाँव में अलाव के सामने
भुल्लुर के मड़हे में अथवा
शहर के सबसे बड़े शापिंग माल में
आने से कतराते हो।
सिद्धाश्रम की हवा तुम्हें खूब भाती है!
ऋतंभरा से दीप्त वातावरण,
कैलाश की स्वर्णिम छाया
फूलों की स्वर्गिक घाटी
और
मानसरोवर की मद्धिम तरंगों से-
काल्पनिक विछोह
तुम्हारे लिए कष्टप्रद हो गया है।
हे महानुभाव!
तुमने तो
सिद्धाश्रम के मार्ग पर
अपनी पूँछ फैला रखी है।
क्या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं?
क्या तुमने दैव को वचन नहीं दिया था?
तुमने भी तो जम्बूद्वीप की राजनीति में–
सार्थक हस्तक्षेप किया था,
अब मौन क्यों हो?
क्या सिद्धाश्रम से निकलने का मार्ग
देवांगनाओं ने रोक रखा है?
आओ!
आकर देखो!
सप्तावरण लोक,
हिमालय से लेकर
सागर की उत्ताल तरंगों तक,
पूर्व से पश्चिम पर्यंत
जनमानस
विषमताओं, विसंगतियों एवं
अंतर्विरोधों के बीच
प्लावन कर रहा है।
रामराज्य की संकल्पना
विलुप्त हो चुकी है।
एक-दूसरे के शीष पर पैर रखकर
प्रजा
वैतरणी को लाँघ जाना चाहती है।
मानसिक उद्वेलन में वह
सिद्धियों एवम् निधियों की
शक्ति को भूल चुका है;
कैवल्य की भी चाह नहीं रही,
उसकी सम्पूर्ण मेधा
मूलभूत सुविधाओं के संयोजन और
क्षणिक अमरता में खर्च हो रही है।
हे चिरंजीव!
फूलों की घाटी में, क्या-
भवरोग की
कोई औषधि नहीं है?
– डॉ. ऋषिकेश मिश्र