कविता-कानन
दस्तख़त
अगणित रेखाएँ
दुख और विषाद की
करती है विचलन
सुख के क्षेत्र में
चाहकर भी हम
रोक नहीं सकते
उनका यूँ अकस्मात
जीवन में प्रवेश कर जाना
आखिर सुख और दुख
दोनों ही समानुपात में
रचते हैं
जीवन के समीकरण
ये तो तय है कि
सुख और दुख
जीवन में आने-जाने हैं
पर हमें क्या मिलता है
ये तय करते हैं
हमारे कर्मों के दस्तख़त
और ये अधिकार
पूर्णरूपेण हमें मिला है
आइए!
सही दस्तख़त करना सीखें।
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गुलमोहर
जब खिलते हैं
शाखों पर
चटक
गुलमोहर के फूल
तब न जाने क्यों
तुम याद हो आते हो
फ़िर ज़ेहन में
होती रहती है
चहलक़दमी
बस तुम्हारी ही
पास न होकर भी
दिल में समा जाते हो
जब भी मिलती थी
खिल उठते थे
गुलमोहर
तुम्हारी आँखों में
अब भी उस लम्हे का
एह्सास दिला जाते हो
करती हूँ स्पर्श
गुलमोहर को
और महसूसती हूँ तुम्हें
यूँ ही देखो न!
ख़ुदा की
इबादत करा जाते हो
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माँ
माँ!
ज्यों-ज्यों तय करती जाती हूँ
जीवन-रूपी सफ़र के विभिन्न सोपान
त्यों-त्यों
यकीन होता जाता है और भी गाढ़ा
कि बेशक
तुम सदृश्य मेरे साथ नहीं हो
पर दुआ बन सदा ही
होती हो मेरे संग
करती हो और मज़बूत
मेरे मनोबल को
भरती हो ऊर्जा
अगले सोपान तक
सफलतापूर्वक पहुँचने को
और मैं
लबरेज़ हो जाती हूँ
तुम्हारे असीम स्नेह से
और दुगुनी ताकत से
निकल पड़ती हूँ
जीवन के एक नए पड़ाव पर
तुम रेज़-रेज़ा
रहना मुझमें यूँ ही
कि लिख सकूँ एक इबारत
संपूर्ण सृष्टि की
जो है-
बस ‘माँ’
हाँ ‘माँ’
– कोमल सोनी