कविता-कानन
तुम भी क्या से क्या हो गए
तुम भी क्या से क्या हो गए,
हम भी क्या से क्या बन बैठे।
सम्बन्धों के शहर ढूँढते,
रिश्तों के जंगल रो बैठे।
तस्वीरों से बातें की हैं,
तस्वीरों को सहलाया है।
खेल यही खेला करते हैं,
हम दोनों ही रूठे-रूठे।
उधड़ गया जो हर कोने से,
उस दिल की तुरपाई करके।
चलो बनाकर बन्दनवारें,
रिश्तों की चौखट पर टांगे।
वक़्त बड़ा ही होनहार है,
ज़ख्म पुराने भर देता है।
यादों के गलियारों की हम,
रंग-रोगन करवा कर बैठे।
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यूँ ही
कविताएँ क्या लिख दीं मैंने,
ग़ज़लों के दिल टूट गए हैं।
चाँद बचा है आसमान में,
तारे तो सब टूट गए हैं।
किसको छोड़ें, किसे तलाशें,
चाहों के घट फूट गए हैं।
दिल सबके हैं काँच की माफ़िक,
ठोकर लग गई टूट गए हैं।
जीवन के इस चक्रव्यूह में,
अभिमन्यु बन कूद गए हैं।
सच सारे घायल हो बैठे,
लड़ने को अब झूठ गए हैं।
– प्रतीक्षा लड्ढ़ा