कविताएँ
जब भी देखता हूँ….!
शब्दों को छुआ भी नहीं
भावों को टटोला भी नहीं
अर्थों पर भाष्य अनन्त किए
अर्थों से अर्थ बटोरने के लिए
तूने व्याकरण भले नहीं पढ़ा.. कारकों को बदलना
तेरी प्रवृति है
तू यह भी तो जान गया है
कि वर्तमान में
संज्ञा से विशेषण बड़ा है!
सोचता हूँ कैसे ढो पाते हो तुम
अपनी संज्ञा के पूर्व
और अपर के विशेषण!
अंततः अलंकार खचित नारी
कुछ तो बोझ सहती ही है
मैंने देखा है तुम्हारी
जीभ और आँखों का तादात्म्य
जैसे लुहार की
संडासी और हथौड़ी का समन्वय!
तुम्हारी हँसी
कभी कभी अचम्भित कर देती है
जैसे घीले की
काछी से निकल जाती है लकड़ी
मैं स्वयं को सम्भालते -सम्भालते
लड़खड़ा जाता हूँ
तुम्हारी आकस्मिक नाराज़गी
कुंद सा कर देती है….
जैसे हँसली की धार में
निकल आये हो दाँत!
तुम्हारी दिखावटी मित्रता
चुभती है ऐसे
जैसे जूते में घुस गया हो कंकर
पर कभी कभी मन
उल्लसित हो जाता है
जब भी देखता हूँ
पनघट की शिला पर
खड़े से बने निशान
या मथानि की
कठोर लाठी पर
कोमल डोरी के बल…!
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कहाँ पता..!
चीत्कार
पीड़ा और
आक्रोश की पुत्री है
स्तम्भित श्वासों ने
कुछ कहा ही नहीं कभी
जलते सूरज को भी
कहाँ पता कि
उससे जीवित है
एक सृष्टि……!
ब्रह्माण्ड के पिण्डों को भी
कहाँ ज्ञात कि
उनमें भी उजाला है
यह आवारा चाँद
इसे भी क्या पता
इस पर लिखा गया है
सम्पूर्ण साहित्य….!
तुम भी सूरज, चाँद,
सितारों जैसे ही हो….!
यहाँ के परजीवी
आश्रित हैं
तुम्हारे
नाभकीय अभिखण्डन पर
चढ़ती-उतरती कलाओं पर
टिमटिमाती डबडबाती
उल्काओं पर…..!
– दिलीप वसिष्ठ