कविताएँ
जब कोई मरता है
जब कोई मरता है
मैं चाहता हूँ
खा लूँ भर पेट भात
डरता हूँ मैं
मरने से
जब कोई मरता है
मैं चाहता हूँ
उतार कर फेंक दूँ
अपने सारे कपड़े
नंगा हो जाऊँ
डरता हूँ मैं
भार से
जब कोई मरता है
मैं चाहता हूँ
मुनादी करवा दूँ
गाँव-गाँव
शहर-शहर
डरता हूँ मैं
कहीं लौट न आये वह
किसी के मरने से
बहुत खुश होता हूँ मैं
क्यूँकि
मरने वाला नहीं लौटेगा
वसूलने उधारी
सलटाने बकाया हिसाब
********************
वह कामरेड न हो सका
उसे
बोझ ढोने से
फुर्सत नहीं मिली
जो बनाता
मुट्ठियाँ
लगाता नारे
उठता झंडा
उसके घर का चूल्हा
दो वक्त
जला नहीं कभी
नियमित
जो जा सके वह
किसी रैली में
सुनने किसी का भाषण
ढोने पार्टी का झंडा
वह कभी
स्कूल न गया
फिर कैसे पढ़ पाता वह
‘दास कैपिटल’
वह सुनता-गुनता रहा
कबीर की साखियाँ
उसे
बचपन से ही
लगता था डर
लाल रंग से
प्राण निकल जाते थे उसके
छिलने पर घुटने
उसे प्रिय थी
खेतों की हरियाली
वह कामरेड हो न सका
**********************
फिर भी
तोड़ दो
मेरे हाथ
क्योंकि ये
लहराना चाहते हैं
मुट्ठी
तुम्हारे विरोध में
उन सबके विरोध में
जो हैं मिटटी, हवा के विरोध में
तोड़ दो
मेरी टाँगें
क्योंकि ये
चलना चाहते हैं
संसद के दरवाज़े तक
और खटखटाना चाहते हैं
बंद दरवाज़े
जहाँ बन रहे हैं
मेरे खिलाफ नियम
मेरी जिह्वा
काट लो
क्योंकि यह लगाना चाहती हैं
नारे तुम्हारे खिलाफ,
तुम्हारी कुनीतियों के खिलाफ
जो छीन रही है
मेरी ज़मीन, मेरे जंगल,
मेरे लोग
मेरी आँखे
फोड़ दो
जो देखना चाहती हैं
सत्ता से
पूँजी की बेदखली
फिर भी
लहराएगा हाथ
भिंचेगी मुट्ठियाँ!
********************
दंगा
ए. के. 47, छुरा, भाला
बरछी, कटार, तलवार और त्रिशूल से
जोते गए हैं खेत
और रोप दिए गए हैं
अलग-अलग रंगों, नस्लों के बीज
ताकि फसलें लहलहायें
खेतों में लाल-लाल
सींचे जा रहे हैं खेत
लालिमा लिए पानी से
जिससे आ रही है
मानुषी-बारूदी गंध
दिया जा रहा है खाद
जिसमें बे-समय हुए मुर्दा की
हड्डियों का चूरा है
मिला हुआ
और लहलहा रही हैं फसलें
खेतों में लाल-लाल
जिनकी रक्षा के लिए
बीचो-बीच खड़े हैं
तरह-तरह के लिबासों में
नरमुंड रूप में बिजूका
ये खेत साधारण खेत नहीं हैं
इन्हें जाना जाता है
विधान सभा, विधान परिषद्,
लोकसभा, राज्य सभा के नामों से
– अरुण चन्द्र रॉय