नवगीत
चौकीदार!
कहाँ सोये हो
घर में घुसते सुअर बनैले
इंटरव्यू में
तो बोला था,
“साहेब सारी रात जगूँगा
आप काम
देकर तो देखो
बढ़िया चौकीदार बनूँगा”
लगता नहीं
कि बढ़ी सुरक्षा
चले आ रहे ऐले-बैले
ज़रा संभल कर
रहना बाबू
कुत्ते रहते हैं पड़ोस में
उसमें कुछ
बीमार बहुत हैं
दौड़े आते जोश-जोश में
गन अपनी
तुम हाथ में रखना
रखना कारतूस के थैले
बगल गाँव के
लोग भले हैं
पर ईर्ष्या के वो हैं मारे
साँप
पाल रक्खे हैं उनने
पागल हैं शायद बेचारे
साँपों को
एक्सपोर्ट कर रहे
पूरी दुनिया में हैं फैले
चौकीदार!
कहाँ सोये हो
घर में घुसते सुअर बनैले.
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ये भारत के लाल
कक्षा बारह
उमर अठारह
बढ़े हुए हैं बाल
लगा रहे हैं घोटा दिन भर
ये भारत के लाल
रात दो बजे
सोते हैं ये
सुबह सात पर जागें
उठते ही आनन-फानन फिर
साइकिल ले कर भागें
हुई दोपहर
लौट रहे हैं
लिए पसीना भाल
जो जितना
संघर्ष करे
वो उतना आगे जाए
पीछे के दरवाजे से पर
कोई न आने पाए
अब तो
हर प्रदेश में
लेकिन फैला व्यापम जाल
मुखिया जी
कुछ करो
कि पैदा होते रहें कलाम
वरना व्यापम के साहेब को
अब्दुल करें सलाम
बद से
बदतर हुई जा रही
हालत सालों साल
कक्षा बारह
उमर अठारह
बढ़े हुए हैं बाल
लगा रहे हैं घोटा दिन भर
ये भारत के लाल
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पंछी चला गया
मन उदास है
पिंजरा खाली
पंछी चला गया
लोग यहाँ
इस दुनिया में
कुछ ऐसे आते हैं
जिनके जाने पर फूलों के
दिल कुम्हलाते हैं
लगता है
कि पंख लगा कर
अब हौंसला गया
सपने पूरे
तब होंगे
जब सपने आयेंगे
बंद करोगे आँखें तब वो
शोर मचायेंगे
बुझी जा रही
आँखों में
वो सपने खिला गया
ठान लिया
जो मन में
उसको पूरा ही करना
असफलतायें तो आयेंगी
उनसे क्या डरना
यही सफलता
की कुंजी
वो हमको दिला गया
हलचल
रहती थी
जब तक था रौनक थी घर में
रहती थी कुरआन की आयत
वीणा के स्वर में
हिन्दू-मुस्लिम
सिक्ख-ईसाई
सब को रुला गया.
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बुरा हाल पंचायत घर का
मानसून का
हाल बुरा है
बुरा हाल पंचायत घर का
रामदीन
टकटकी लगाये
देख रहा घनघोर लड़ाई
‘अ’ जो कल तक कहते थे फिर
‘ब’ ने बात वही दुहराई
‘अ’ ‘ब’ को
अब एक समझिए
नाम अलग है कहने भर का
एक झुण्ड कहता
उत्तर को
झुण्ड दूसरा दक्षिण जाता
कहीं न जाना किसी झुण्ड को
केवल झूठी बात बनाता
रामदीन
ये खेल देखता
हाथ में प्याला लिए जहर का
जो आया
वो मौन हो गया
कुर्सी का कुछ जादू ऐसा
पंचायत घर का सम्मोहन
छाया उन पर जाने कैसा
मुखिया जी
के मन में बनता
दिन भर नक्शा नए शहर का
– डॉ. प्रदीप शुक्ल