कविता-कानन
चित्र
जिस चित्र ने लोगों का ध्यान
अपनी ओर खींचा था
उस चित्र के पीछे की आँधी से
सभी अनभिज्ञ थे
वे नहीं जानते थे
व्यथा की भी अपनी
एक गरिमा होती है
जो नहीं बिखेरती
स्वयं को हर किसी के आगे
तुमने जो समझने की
क्षमता पाई हो
तो निस्संदेह
सत्य को टटोलो
वरन् रंगों को देखकर
अभिभूत होना
तुम्हारे स्वभाव के अंग के संग
तुम्हारे पतन की घोषणा है
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अंतिम इच्छा
एक दादा प्राण त्याग देता है
उन कपड़ों में
जो उसकी पोती लाई थी
अपनी पहली कमाई से
वो उसे ही पहने
मरना चाहता है
ताकि
वो उस कमीज़ की भी
आत्मा को साथ लेकर
पहुँचे यमलोक
दे सबूत
महिलाओं के उत्कर्ष का
और कह दे
यमराज से
कि बदले बच्चियों के
यमलोक जाने का रास्ता
कुछ ऐसा रचे व्यूह
कि स्त्री का हर रुप
जी सके
धरती को….।
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छोटे शहर की
कुछ ठरकी लड़कियाँ
छोटे शहर की
कुछ ठरकी लड़कियाँ
ज़ोर ज़ोर से हँसती हुई
सड़कों पर
आते जाते छेड़ती
लड़कों को
तौलती हैं उनको
नंबरों में
बजाती हैं सीटियाँ
दबे स्वर में
और लगाती हैं चक्कर
सड़कों के
वे खूबसूरत हैं
परियों सी
साँवली, चुलबुली, खिलखिलाती
मुझे भातीं
वे चहकतीं, दमकतीं
सोणी गौरैयाएँ
ये कहानी नहीं
सच है
होती हैं ये
अजूबे-सी
बैक बेंचर्स टाइप,
गॉसिपबाज़,
ज़िद्दी तर्रार लड़कियाँ
छोटे शहर की
कुछ ठरकी लड़कियाँ
धारावाहिकों की
धाराओं में बहतीं
नायकों में
अपना जीवनसाथी ढ़ूँढ़ती
कथा चरित्रों को
जीवंत करतीं
चलचित्रों में समाती हुईं
संभल संभल कर
बेवकूफी भरे
प्रश्न पूछतीं लड़कियाँ
मुझे भातीं
ये पगली-सी,
अलहड़, बेतकल्लुफ,
निगाहों में खलतीं
छोटे शहर की
कुछ ठरकी लड़कियाँ
– निशा चौधरी