गीत-गंगा
घर-घर अफ़लातून
भेड़चाल की
बात करेंगे
पर काढेंगे ऊन,
देश के भीतर
चर्चाओं में
घर-घर अफ़लातून।
अंगूरों की
इस बस्ती में
कोई खट्टा-मीठा,
दिल की परतों-
-दर-परतों पर
चढ़ा हुआ है रीठा।
कुर्ता झक्क
छुए घुटने पर
फटी हुई पतलून।।
तू तू तू की
करें कबड्डी
मैं पर मैं है भारी,
बीच में रेखा
खिंची हुई है
पारदर्शिता हारी।
काम करेगा
कौन यहाँ, बिन
पाए पत्र-प्रसून।।
उत्साही
पाया करते हैं
कुआँ खोद कर पानी,
राजाओं के
भरे भरोसे
बैठी है क्यों रानी?
अपने चने
घेंटियों में, पर
खोज रहे रंगून।।
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चूना और तमाखू
एक बात की
सौ-सौ बातें
सौ-सौ रोज सवाल।
तुम भी अपनी
चाल चल रहे
हम भी अपनी चाल।।
भाग रहे
सपने लेकर
आधी-पूरी की आस,
उसी डाल पर
मार कुल्हाड़ी
ख़ुश हैं कालीदास।
मूँछ तराशी
करते-करते
साफ़ हो गये बाल।।
दाँव लगा तो
चित्त कर दिया
नहीं लगा तो पट्ट,
जनम की भूखी
रही ज़िंदगी
दौड़ रही लरपट्ट।
तुम भी अपना
काल कह रहे
हम भी अपना काल।।
स्वप्न देखना
और दिखाना
इस उस के हैं काम,
दुखते मुख को
पकड़े बैठे
कब से भोलाराम!
चूना और तमाखू
मिलकर
काट रहे हैं गाल।।
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अँगूठा हाज़िर है
गुरुता के
इन गलियारों में
द्वन्द निरंतर बाहर-भीतर।
मोहरों से इस चौसर में
वे बैठे हैं होंठों को सी कर।।
मन पर बोझ
बोझ पापों का
पापों की किससे समता है?
चाह रही
चोटी की जग में
शिखरों की सीमित क्षमता है।
शिखरों से
जो बह कर आयी
जीवन की शाश्वत अमराई
अमराई के पत्ते छोटे
ज़िन्दा हैं वे विष को पी कर।।
राजा अँधा
रानी बैठी
बाँध आँख में मोटी पट्टी,
युवराजों के
हाथ में सत्ता
जनता तो है तोता रट्टी।
चंदन की
माला को जपते
उँगलियों में दर्द हो उठा
तीर तमंचों की दुनियाँ में
क्या करना है रोकर जीकर??
सबके
अपने-अपने अर्जुन
सबके अपने परम पिता हैं,
चेलों की
शक्कर से बढ़कर
वे दुनिया के स्वयं सिता हैं।
मेरी श्रद्धा का
जो तुम यूँ
मोल माँगते हो तो सुन लो-
अँगूठा प्रस्तुत करता हूँ
इच्छा हो तो चूसो जी भर।।
– अशोक शर्मा कटेठिया