कविताएँ
घर
उसने जूड़े से एक पिन निकाला
और दीवार पर कुरेदा ‘घर’
सात वर्ष पहले
ब्याह कर आई वो
आज भी घर तलाश रही है
पिता ने
विदा करते वक्त कहा था-
“तुम तो मेहमान थीँ यहाँ!
स्त्री का घर तो
ससुराल होता है”
और शादी के
दो महीने बाद से ही
पति से सुनती आ रही है वो-
“अपने घर से
दहेज मेँ कुछ लाई होती
तो मैँ कोई काम धंधा
जोड़ लेता”
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कितना ज़रूरी है
कितना जरुरी है यहाँ
एक बेटी के लिए बाप,
बहन के लिए भाई,
पत्नी के लिए पति
बिना इन रिश्तोँ के
स्त्री के लिए जीवन अभिशाप है
जब वो बाग मेँ
तितलियाँ पकड़ती है
तो उसके संग
खेलने के बहाने
साथ रहता है
उसका पिता
हर वक्त
जिसका ध्यान खेल से
ज्यादा रहता है
उन राहगीरोँ पर
जो उसकी
बेटी को खेलता देख
ठिठक गये हैँ राहोँ मेँ
और पढ़ता है
उन सबकी मुस्कानोँ को
जो उसकी बेटी के प्रति
रखती हैँ अच्छे और बुरे भाव
जवानी की दहलीज पर
भाई
बाप की जगह
बन जाता है उसका रक्षासूत्र
नजर रखता है
स्कूल से घर तक
और घर से बाजार तक
मिलने वाले हर उस शख्स पर
जो करता है उससे बातेँ
मुस्कुराकर
या देता है उसे तोहफे
बेवजह,बिना ओकेजन
अग्निकुंड के फेरोँ पर
अकूत इच्छाओं का स्वामी
बन जाता है
उसका अंगरक्षक
जो रखता है जानकारी
इस बात की
कि पड़ौस से रिश्तेदारी तक
कौन-कौन
आता मिलने उससे
करता है कैसी-कैसी बातेँ
क्योँ रहता है हर वक्त
उसे देखकर मुस्कुराता
ये सब पुरुष तत्पर है
उसे उन सब से बचाने के लिये
जो हैँ किसी के बाप, भाई या पति
– अनामिका कनोजिया प्रतीक्षा