गुंचे यादों के , मुमकिन है कि
गुंचे यादों के
जमीं में दबी हुई जड़ें !
खुली हवा में ना जी पाने का
बादलों के जब मर्जी आये
बरस जाने का
पत्तियों के बूँदें ढुलका देने का
शिकवा नही करती कभी
आँखें मूंदे वे जब भी याद करती हैं
गए दिनों की बारिशें
हौले से टांक देती है
अपनी शाख पर
एक और शोख नरम पत्ती
यादों के गुंचे हरी पत्तियों की शक्ल में
नज़र आते हैं शाखों पर
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मुमकिन है कि
जब तक नम हूँ मैं
गूंधते रहो
चाक पर घुमाते रहो
और अबा में तपाते रहो
जो किसी दुपहरी
अपनी सारी नमी
उडा दूंगी मैं
उड़कर
आँखों को
धुंधला दूंगी मैं
किरकिराती कोरें
मुमकिन है
तुम्हे दो घड़ी
सोचने को मजबूर कर दें
– नीता पोरवाल