चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
आ गया आतंक का जब दौर भारत में
चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
नाग काले रेंग, सीमा से इधर आये
और कुछ कव्वे फिरे हैं भेस बदलाए
नाच उट्ठें कार्तिक के मोर भारत में
चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
लालसा जीवन की किसने, छीन ली इनसे
स्वर्ग की चाबी गले में डाल कर फिरते
मनुज बम का हो गया क्यों जोर भारत में?
चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
उस धरा से द्वेष, जिसका अन्न हैं खाते
प्रेम गैरों से है, घर में आँख दिखलाते
रक्त की नदियाँ हैं और है शोर भारत में
चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
प्रेम शाश्वत है तो मानव देश के हित कर
अमर कोई है न होगा, देश के हित मर
उठी आतंकी घटा घनघोर भारत में
चाहिए आनन्दमठ इक और भारत में
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कैसे तेरे काम आऊँ?
ये मेरा देश है, कैसा निराला लगता है
हर इक सपूत ही इसका जियाला लगता है
ये मेरा देश है
सर-सब्ज़ घाटियों वाला
गगन को चूमती
बर्फीली चोटियों वाला
भरे हैं खुशबुओं से
इस वतन के उपवन भी
किसे मैं अपने देश के समान समझूँगी?
तरह-तरह के पंछियों की
गूँजती तानें
लुभावने से कुसुमकुंजों
की मुस्कानें
यहाँ तो बह रही हैं
नीर भरी सरिताएँ
मैं किस धरा को दूँ
अपने वतन की उपमायें
हरेक घर मुझे इसका शिवाला लगता है
ये मेरा देश किसी
सुघढ़ गीत जैसा है
किसी की प्रथम दृष्टि
मधुर प्रीत जैसा है
किसी की मेरे देश को
नज़र न लग जाए
वो आँख फोड़ दूँ
जो लेके बद-नज़र आए
मैं अपनी खाक से
तुझको तिलक ही कर जाऊँ
मेरे वतन ये कह
मैं कैसे तेरे काम आऊँ?
ऐ मेरे देश हों तुझ पर
निसार प्राण मेरे
मैं तेरे काम आऊँ
तो पुगें अरमान मेरे
नई रुतों का तेरे घर उजाला लगता है
ऐ मेरे देश तू सब निराला लगता है
– आशा शैली