गीत-गंगा
गीत
1.
कंटक पथ में अकुलाता मन,
कश्ती भी है मझधार गई ।
यह अश्रुपूर्ण मन बोल उठा,
लो तुम जीते मैं हार गई ।।
तुमने पुस्तक कितनी बाँची,
पर हृदय न मेरा बाँच सके ।
पढ़ पाये कभी न सजल नयन
क्या प्रेम प्रीत ही जाँच सके ।।
कोमल फूलों जैसा यौवन,
प्रियतम ! उससे तो बहार गई ।।
लो तुम जीते ———-
वह प्रथम मिलन की बेला थी,
जब मेघ घुमड़ कर थे बरसे ।
धरती से मन तक हरियाली ,
चातक स्वाती पाकर हरसे ।।
छायी फिर जो गम की बदली,
सुख की हर एक बयार गई ।।
लो तुम जीते ————-
कुछ स्वप्न सदृश सा है लगता,
हम दोनों का फिर से मिलना ।
अब सम्भव यह हो जाये बस,
काँटों में फूलों सा खिलना ।।
है तपिश प्रेम की कुछ बाक़ी,
या उसकी भी अंगार गई ।।
लो तुम जीते ————-
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2.
ज़मीं से गगन तक तपन ही तपन है ।
बढ़ी भास्कर से अगन ही अगन है ।।
चली पनियाँ भरने को संग में सहेली ।
भले साथ सबके, है तन्हा अकेली ।
लिए सर पे मटकी हिय में सजन है ।।
तपन ही तपन है………
गए हो सजन तुम परदेस जब से ।
नयन तो लगे हैं द्वारे पे तब से ।
हुआ अब कठिन ही अपना मिलन है ।।
तपन ही तपन है ………
है घर-बार सूना है सूनी नगरिया ।
बिछे शूल पथ में है मुश्किल डगरिया ।
नयन राधा ढूंढे कहाँ पर किशन है ।।
तपन ही तपन है …………
– पुष्प सैनी पुष्प