गीत-गंगा
गीत
(1)
वह मिलन के स्वप्न बुनती रह गई पर
प्रीत की डोरी न अब तक जोड़ पाई
रूप-रँग और रस सभी फीके पड़े हैं
पाँव ने हठधर्मिता का दर्द झेला
प्यार का रस्ता बहुत लम्बा व निर्जन
और मैं ठहरा पथिक बिल्कुल अकेला
स्वप्न चुनकर बुन रहा था ज़िन्दगी मैं
आँसुओं से स्वप्न की कीमत चुकाई
जब अधर ने मौन से सम्बन्ध जोड़ा
आँसुओं ने दर्द का इतिहास गाया
हो गयी विह्वल नदी जब नेह की तो
ऊर्मियों ने विरह का तटबंध ढाया
बच रहे थे हम व्यथा के गान से तो
गीत की फिर पंक्ति ही क्यों गुनगुनाई
उर्मिला-सी ज़िन्दगी उसने गुजारी
मैं लखन-सा विरह-रस पीता रहा हूँ
कौन जाने कब अवधि यह ख़त्म होगी
दर्द ले वनवास का जीता रहा हूँ
प्रीति के जितने लिखे थे पत्र मैंने
आज उनकी ही मुझे मिलती दुहाई
प्रेम की सरिता छुपी रहकर सभी से
दो उरों के बीच अविरल बह रही है
साथ पल का, पर उमर-भर की जुदाई
भाग्य की रेखा यही तो कह रही है
थपथपाकर स्वयं को ढाँढस बँधाया
और फिर मद्धम हुई यह रौशनाई
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(2)
बह रही हैं आँसुओं में अब तुम्हारी चिठ्ठियाँ
प्यार के बदले विरह के बीज ऐसे बो गए
प्रीति की शब्दावली के अर्थ सारे सो गए
शुष्क मरुथल में बनी मृग की पिपासा, आस थी-
तुम गए तो प्यार के संदर्भ झूठे हो गए
पर अभी भी राह तकती हैं कुँआरी चिठ्ठियाँ
बह रही हैं आँसुओं में अब तुम्हारी चिठ्ठियाँ
पूर्ण होकर भी अधूरी रह गयी अपनी कथा
हर दिशा में गूँजती मेरे विरह की ही व्यथा
अश्रु छाए हैं दृगों में और उर में है जलन-
प्रिय! तुम्हारी याद ने है तन-बदन मेरा मथा
नेह से ही नेह का विश्वास हारी चिठ्ठियाँ
बह रही हैं आँसुओं में अब तुम्हारी चिठ्ठियाँ
रह गया सबकुछ अधूरा, प्रेमधन जब खो गया
दर्द से संबंध जुड़ते, चैन का क्षण खो गया
थे बहुत सपने संजोए, मैं तुम्हें अपना सकूँ-
चाह खोई इस तरह की प्राण! जीवन खो गया
अब नहीं जातीं सँभाली प्राण-प्यारी चिठ्ठियाँ
बह रही हैं आँसुओं में अब तुम्हारी चिठ्ठियाँ
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(3)
चूमकर मेरी हथेली क्यों गए तुम मीत बोलो?
इन दृगों की पुतलियों पर,
रातभर जगना लिखा है।
मैं शलभ, तुम दीप की लौ,
भाग्य में जलना लिखा है।।
मर मिटूँगा प्राण! तुम पर, मत हृदय में पीर घोलो।
चूमकर मेरी हथेली क्यों गए तुम मीत बोलो?
है जहाँ अधिकार मेरा,
हक़ तुम्हारा भी वहीं है।
भूल पाओ प्यार मेरा,
बात यह सम्भव नहीं है।।
आँसुओं की इस नदी में मीत, तुम भी नैन धो लो
चूमकर मेरी हथेली क्यों गए तुम मीत बोलो?
चिर प्रतीक्षा में अगर कुछ
साथ हैं तो चिठ्ठियाँ हैं
प्रीत ने सींचा जिन्हें था
मन की सूखी डालियाँ हैं
याद कर फिर से हमें प्रिय! डायरी के पृष्ठ खोलो
चूमकर मेरी हथेली क्यों गए तुम मीत बोलो?
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(4)
खुशियाँ कम आयीं हिस्से में दुख ही अधिक सहे
अजब दौर है शीश झुकाकर यहाँ पड़े चलना
हम बंजारे, सीधे-सादे क्या जानें छलना
मन घंटों रोया, तब जाकर थोड़े अश्रु बहे
हमने केवल उन राहों पर छोड़े हैं पदछाप
भुगत रहीं थीं, जो सदियों से ऋषि-मुनियों के शाप
विष ही पिया उम्र भर हमने लेकिन कौन कहे
दो रोटी की चिंता में ही जीवन बीत गया
लगता है सुख का घट धीरे-धीरे रीत गया
आशा की दरकीं दीवारें, सपने सभी ढहे
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(5)
हम गंगा-से निर्मल हैं, हम अविरल सदा बहे
सोचो, रहीं तमिस्राएँ क्यों अपने जीवन में
सुख का हंस नहीं उतरा क्यों अब तक आँगन में
धूप बिना क्यों कोई छाया का आनंद लहे
देखो, विधवा के अधरों की लाली बहक रही
मृत्यु-सेज पर पति लेटा है, फिर भी चहक रही
भूल गयी, सावित्री से यम के संकल्प ढहे
चाटुकारिता की चौखट पर हम क्योंकर जायें
राजमहल की विरुदावलि भी किस कारण गायें
हम कबीर के वंशज पद-वैभव से दूर रहे
– अमन चाँदपुरी