गीत-गंगा
गीत- सिसक रहा पर्यावरण
प्रकृति पर निर्मम प्रहार
सतत चोट घाव पर घाव
जब माली ही लूट रहा
संभव कैसे तरु बचाव
धरा का नित चीर हरण
सिसक रहा पर्यावरण
प्राण वायु घट रही है
अभावों में कट रही है
संसाधनों का ह्रास है
दुर्गंधयुक्त हर श्वास है
अपशिष्ट सार संचरण
असंभव लगे निस्तरण
सिसक रहा पर्यावरण
उर्वर भूमि का संकुचन
कुंद होता नीर सिंचन
सूख रहे ताल तड़ाग
छाया को न वृक्ष बाग
घटे धरा का आवरण
असंभव-सा नव अंकुरण
सिसक रहा पर्यावरण
कीट नाशक का प्रयोग
जनित करे कितने ही रोग
पर्वत का नित-नित स्खलन
निरंतर खनन हेतु हनन
विषाक्त-सा वातावरण
हर क्षण होता है क्षरण
सिसक रहा पर्यावरण
चला यदि यही अन्याय
किया न शीघ्र कुछ उपाय
संसाधन रहेंगे नहीं
प्रकृति ने जो बाँटे कभी
बदले न अगर आचरण
तय रहा फिर सॄष्टि मरण
सिसक रहा पर्यावरण
– ओंम प्रकाश नौटियाल