गीत-गंगा
गीत- राजधानी की नदी हूँ
साँवला था तन मगर
मनमोहिनी थी
कल्पनाओं की तरह
ही सोहिनी थी
अब न जाने कौन-सा
रँग हो गया है
बाँकपन जाने कहाँ पर
खो गया है
देह से अंतःकरण तक
आधुनिकता से लदी हूँ।
राजधानी की नदी हूँ।।
पांडु रोगी हो गये
संकल्प सारे
सोच में डूबे दिखे
भीषम किनारे
काल सीपी ने चुराये
धवल मोती
दर्द की उठतीं हिलोरें
मन भिगोती
कौरवों के जाल-जकड़ी
बेसहारा द्रौपदी हूँ।
राजधानी की नदी हूँ।।
दौड़ती रुकती न दिल्ली
बात करती
रोग पीड़ित धार जल की
साँस भरती
लहरियों पर नाव अब
दिखती न चलती
कुमुदनी कोई नहीं
खिलती मचलती
न्याय मंदिर में भटकती
अनसुनी-सी त्रासदी हूँ।
राजधानी की नदी हूँ।।
कालिया था एक वो
मारा गया था
दुष्टता के बाद भी
तारा गया था
कौन आयेगा यहाँ
बंसी बजाने
कालिया कुल को पुनः
जड़ से मिटाने
आस का दीपक जलाये
टिमटिमाती-सी सदी हूँ।
राजधानी की नदी हूँ।।
– कल्पना ‘मनोरमा’