गीत-गंगा
गीत- प्यासी धरती
प्यासी धरती-
प्यासी नदियाँ,
दिखे न पानी रे!
नंगे पर्वत सहमे,
जंगल एक कहानी रे!
महुआ, बरगद, जामुन,
नीम, बबूलों की।
हरियाली कट रही,
नदी के कूलों की।
तालाबों में,
भवन-सड़क काबिज़ मिलते;
होतीं केवल बातें यहाँ उसूलों की।
बंजर धरती माँग रही है,
चूनर धानी रे!
नंगे पर्वत सहमे,
जंगल एक कहानी रे!
गमलों में हैं
बची बहारें फूलों की।
चिन्ता सता रही है,
निसदिन शूलों की।
न्याय माँगती प्राणवायु-
न्यायालय में;
याद दिलाती हमें,
हमारी भूलों की।
इतना होने पर भी,
हमको लाज न आनी रे!
नंगे पर्वत सहमे,
जंगल एक कहानी रे!
कहते हैं माता,
पर मान नहीं देते।
सश्य श्यामला का
परिधान नहीं देते।
करती क्या-क्या नहीं,
हमारी खातिर ये;
लेकिन ममता का
प्रतिदान नहीं देते।
अगर न चेते ‘विकल’,
खलेगी यह नादानी रे!
नंगे पर्वत सहमे,
जंगल एक कहानी रे!
– डॉ. राम ग़रीब विकल