गीत-गंगा
1.
ग़ौर करो तो सुन पाओगे
परदे भी क्या कुछ कहते हैं
खिड़की से ये टुक-टुक देखें
नभ में उड़तीं कई पतंगे
अक्सर नीदों में आ जाते
सपने इनको रंग-बिरंगे
लेकिन इनको नहीं इजाज़त
खुली हवा में लहराने की
बस छल्लों से बँधे-बँधे ही
ये परदे रोया करते हैं
घर के भीतर की सब बातें
राज़ बनाकर रखते परदे
धूप, हवा, बारिश की बूँदे
बुरी नज़र भी सहते परदे
सन्नाटों में मकड़ी इन पर
जाले यादों के बुन जाती
अवसादों की धूल हृदय पर
फिर भी ये हँसते रहते हैं
इन पर बने डिज़ाइन सुंदर
चमकीले कुछ फूल सुनहरे
परदे ढाँपें दर-दीवारें
और छिपाते दागी चेहरे
इन परदों ने लाँघी है कब
मर्यादा की लक्ष्मण रेखा
आँख देखतीं, कान सुन रहे
अधरों पर ताले रखते हैं
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2.
मजबूरी ही पैदल चलती
सिर पर लादे धूप
आँतों में अंगारे रखकर
चलते जाते पाँव
लेकिन इनको भान नहीं अब
बदल चुका है गाँव
लाचारी, उम्मीदें हारी
नहीं कहीं भी छाँव
और राह में मिलते केवल
सूखे अंधे कूप
भूख, रोग, दुर्घटना, चिंता
है मौसम की मार
हिम्मत कब तक साथ निभाये
क़िस्मत ही बीमार
कहाँ ग़रीबी को मिल पाया
कोई भी तीमार
क्रूर समय भी दिखलाता है
सच कितना विद्रूप
फोर लेन पर घायल सपने
खोजें कहाँ पड़ाव
अलगावों से जूझ रहे थे
मिले नये अलगाव
अंजानी दहशत फैली है
कैसा यह बदलाव
कैसे दृढ़ फिर हो पायेगा,
ढहा हुआ प्रारूप
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3.
अपनी चादर बढ़ा रहे हैं
कब आँसू को पोंछ सके वो
बने कहाँ रूमाल किसी का
खड़े कर लिये महल दुमहले
बिठवाये दरबान दरों पर
खिड़की साउंड प्रूफ काँच की
चीख, रुदन आये मत भीतर
टीवी पर सब सुन ही लेंगे
बाहर क्या है हाल किसी का
समाधान का सुर है गायब
प्रश्नोत्तर की ता-ता थैया
सबके उत्तर पूर्व नियत हैं
पूछो चाहें कुछ भी भैया
घी डालो नित और हवा दो
जलता रहे सवाल किसी का
भूले हैं जो शक्ति एकता
उन्हें सहज है मूर्ख बनाना
सुर में सुर मिल ही जायेंगे
आँते जब माँगेंगी खाना
दाने ऊपर बिखरें हों तो
कहां दिखेगा जाल किसी का
– गरिमा सक्सेना