गीत-गंगा
गाँव की दारुण कथा
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
वार्ड का मेंबर
गवर्नर से बड़ा है
नाग बन प्रधान
काढ़े फ़न खड़ा है
मुफलिसों पर ज़ुल्म की
सौ यातनाएँ
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
होम तक अब है
डिलीवरी बोतलों की
धाक है बस
मनचलों की, पिस्टलों की
सिसकियों में कैद झुनिया
की व्यथाएँ
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
सभ्यता के वृद्ध पीपल
मौन साधे
हैं विवश, निज वंशजों में
देख व्याधे
रो रहे दुत्कार सह,
अवहेलनाएँ
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
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ज़ालिम सियासत की शिकार
रोटियाँ
फिर हो गयी
ज़ालिम सियासत की शिकार
ट्रेन पर
चढ़ना जिन्हें था
ट्रेन उन पर चढ़ गयी
फिर विवशताएँ,
क़फ़न की दास्तानें
गढ़ गयी
सूट पहने
इस सियासत का दिखा
सब कुछ उघार
रोटियाँ
फिर हो गयी
ज़ालिम सियासत की शिकार
भूख के
सब प्रश्न बँटकर
चीथड़ों में रह गये
मांग के
सिंदूर धुलकर
पटरियों पर बह गये
ग्रामवासिन
भारती
रोती रही जेवर उतार
रोटियाँ
फिर हो गयी
ज़ालिम सियासत की शिकार
भिंच रही हैं
अब उपेक्षित
रोटियों की मुठ्ठियाँ
इक मुकम्मल
जंग की सब
सज गयी है गोटियाँ
हो गयी
पहचान इसकी
कौन है रंगा सियार
रोटियाँ
फिर हो गयी
ज़ालिम सियासत की शिकार
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लटक रहा है न्याय
फाँसी के फंदे से खुद ही
लटक रहा है न्याय
स्वास्थ्य व्यवस्था
ग्लूकोज पर
अस्पताल सब हैंग
देश बेड पर
लूटे जिसको
लोकतंत्र का गैंग
सड़े गले
सिस्टम को भी हम
करते जस्टीफाय
फाँसी के फंदे से खुद ही
लटक रहा है न्याय
पीएचडी
डिग्री धारी भी
होना चाहे प्यून
पहुँच पैरवी
नित्य बहाते
प्रतिभाओं का खून
मनरेगा में
काम ढूँढते
एम. ए. भी असहाय
फाँसी के फंदे से खुद ही
लटक रहा है न्याय
निर्वासित सब
फूल हुए हैं
कांटों के सिर ताज
दबा दी गई
है शाखों की,
पत्तों की आवाज़
जड़ में माली
ही डाले विष
क्या हम करें उपाय
फाँसी के फंदे से खुद ही
लटक रहा है न्याय
– रंजन कुमार झा