कविता-कानन
मेरी पत्नी ने पूछा, “क्या अबकि बरस बसंत नहीं आएगा?”
बोलो, क्या जवाब दूँ उसको
मैं पहले ही बहुत दुखी हूँ
अब यह सवाल सलीब की तरह आ पड़ा मेरे कंधों पर!
बेहतर होता कि मैं जीसस होता
और उठा सकता संजीवनी बूटी वाला पहाड़
कभी जब वह इक्कीस बरस की थी
और मेरी दुल्हन बनकर घर आई थी
वह बसंत मनाया करती थी
मेरे किराये के घर के सामने एक पेड़ था
जिस पर एक झूला पड़ा था
वह कुछ कुंवारियों के साथ वहाँ झूला करती थी
और उन उत्सुक किशोरियों को
रातों की कहानियाँ सुना देती थी
अब इतने सालों बाद
उसका यह पूछना दिल पर बोझ डालता है कि
“क्या अबकि बरस बसंत नहीं आएगा?”
ख़ासकर तब, जब आँखों से दृष्टि जा रही है,
पसलियों में नब्ज़ का धड़का सुनता है
और सब्जियों से, फूलों से, मनुष्यों से
सबसे डर लगता है!
हो सकता है अस्पताल की सीढ़ियों पर
मौत के इंतज़ार में आखिरी बार
बसंत देखना नसीब हो!
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जब जीवन विवश कर दे
कड़े निर्णय लेने को
क्या करे मनुष्य
अस्पताल में पड़ा हुआ मरीज
जितना दर्द में होता है
उसका बाहर खड़ा रिश्तेदार
उससे ज्यादा दर्द में होता है
फिर भी उसे उसकी भलाई के लिए
जो उसके भरोसे निर्द्वन्द्व लेटा है
निर्मम होना पड़ता है
निर्मम होते ही
निर्णायक होते ही
मनुष्यता हार जाती है
और ईश्वर जीत जाता है
बीमार घोड़े को गोली मारने के बाद
उसका मालिक कभी पहले जैसा नहीं रहता
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छुटपन में
बहुत साल पहले
गरम रातों में मैं घर के आँगन में सोया करता था
मेरे अगल-बगल होती थी माँ-पिता की चारपाईयाँ
घर के एक तरफ थी रात की रानी की बेल
जिसके फूल रात में ज्यादा महक उठते थे
रात में अचानक जाग जाने पर
आसमान की तारों भरी अनजान छत देखकर डर जाता था
सोचता था इतने बड़े निस्सीम जगत में
मैं अकिंचन कहाँ हूँ और क्या करता हूँ सोकर
जब तारे और चंद्रमा उस सर्वशक्तिमान के
आदेश पर जाग रहे
कर्तव्य-पथ पर
पूछा था माँ से कई बार
इन तारों को वह तुम्हारा दयालु ईश्वर
इनके घरों में सोने की अनुमति क्यों नहीं देता
हमने क्या करना होता है इनके प्रकाश और पहरे का
कोई देर रात में घर आने वाला तो एक टॉर्च जलाकर भी घर पहुँच सकता है
माँ उदास होकर कहती,”हमारे अपने जो दुनिया छोड़कर वैकुंठ को जाते होंगे
उनके हाथ में कौनसा टॉर्च रहता है
वे तो अपना शरीर भी यहीं छोड़ जाते हैं।
यह बात सोचकर मैं अपनी खाट पर पड़ा हुआ डर जाता था
और मुँह तक चादर ओढ़ लेता था।
– सतीश सरदाना