कविता-कानन
खर-पतवारों के बीच
बदहाली की मात्रक
फटेहाली की पैदाइश
वो नन्हें कदमों से
परचून की दूकान जाते वक्त
जब खींच ली गई होगी
सड़क किनारे से
खर-पतवारों के बीच
सूनसान जंगली खेतों में
कितनी छटपटायी होगी
कितनी मिन्नतें माँगी होंगी
आबरू बचा लेने की खातिर
कैसा लगा होगा उसे
जब उसे सुनने वाला
कोई नहीं होगा
उसकी अपनी ही आवाज
डरावनी चीखों में
तब्दील होकर लौटती होगी कानों में
उसका हर एक विरोध
जब उत्तेजित करता होगा
मानवी गिद्धों के झुंड को
उसके सारे सपने
सारी आकांक्षाओं ने
दम तोड़ दिया होगा
और वह ढ़ीली, निढ़ाल
पड़ गयी होगी
गिद्धो की पकड़ में
जिस्म पर बचे, कपड़ों के
चंद फटे टुकड़ों के साथ
उसकी खुली आँखों के सामने
हो रहा था, उसके
अंगों का बँटवारा
आपस में गिद्धों के बीच
शायद, उसे पता चल चुका था
परसों रात भी
यही हुआ होगा
नीम के पेड़ से लटकी
रज्जो की लाश के साथ
जिसे आत्महत्या
साबित कर दिया था
समाज के
कद्दावर लोगों ने
पंचायत की चौकी पर
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दंगे
दंगे
हमने भी देखें हैं
दंगे
तुमने भी देखें हैं
उसकी चपेट में
तुम भी आये हो
हम भी आयें हैं
उन दंगों में
अपनों को खोया है
अपने ही हाथों
अस्त्र-शस्त्र तो बस
मात्र एक जरिया था
हम लोगों ने
दंगे के बाद का
सन्नाटा भी देखा है
अपनी ही गोद में
अपनों को दम तोड़ते
देखा है
अपनों की ही
जर्जर लाशों पर चलकर
अपनों की लाशों की
पहचान की है
तुमने भी/ हमने भी
पर क्या कभी
हमने सोचा है/ विचार किया है
ये दंगे कौन करवाता है
किसलिए करवाता है
कौन होते हैं
इन खूनी दंगों के पीछे
बस हमें उकसाया जाता है
और हम हो जाते हैं
उन्मादी हर बार
हो जातें हैं तैयार
अपनों को काटने के लिए
कभी धर्म, सम्प्रदाय
और जाति के नाम पर
तो कभी
मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारों के
निर्माण और विध्वंस के नाम पर
हमने कभी नहीं
देखा/ देखना चाहा
इन दंगों के पीछे
मोटे गद्दों पर बैठे
राष्ट्रवाद का मुखौटा पहने
शिक्षित और बुद्धिजीवी
हत्यारों की तरफ
पर अब समय आ चुका है
सत्ता की चादर ओढ़े
राष्ट्रवादी आतंकियों
की पोल खोलने का
उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का
दंगों के आईनों में
हम लोगों ने
कुछ कद्दावर चेहरे
पहचान लिए हैं………!
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अजन्मी बच्ची
उस अजन्मी बच्ची की
हत्या की सारी साजिशें
गढ़ी जा चुकी थीं
पराध्वनिक चित्रण की
पुर्जी में लिंग पता लगते ही
उस बेचारी, बेजुबान
अपूर्ण और निराकार
बच्ची की गलती
बस इतनी थी
कि वह लड़की जन्मती
घर के सारे सदस्य
इतने खुश थे, मानो
कोई महोत्सव हो रहा हो
आज उनके घर
बूढ़ी, कुबड़ी अम्मा भी
नई साड़ी पहन
पहुँच चुकी थी अस्पताल
कत्ल के इस महोत्सव में
शरीक होने
जहाँ बिकते थे रोज
चिकित्सक, नर्स
और प्रशासन
चंद नोटों पर
अंदर छुरी, चाकू,
रुई और पट्टियाँ
सब के सब तैयार थे
हत्या को अंजाम देने के लिए
सिर्फ खामोश थीं
अजन्मी बच्ची की
बेबस, बेसहारा, लाचार
और अवाक् माँ
जो हो चुकी थी- विक्षिप्त
इस महोत्सव की
चकाचौंध में…….!
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शहरीकरण
जब हो रहा था
गावों का शहरीकरण
बिछाए जा रहे थे
कंक्रीट
मुनाफों के गोदाम से
ला लाकर
जब झोपड़ियों को
उजाड़-उजाड़ कर
बन रहे थे
जानलेवा फ्लाइओवर
दी जा रही थी आहुति
प्रकृति की सुंदरता की
परियोजनाओं के हवनकुंड में
आधुनिकता के नाम पर
गाड़े जा रहे थे
बिजली के गगनचुंबी खंभे
किसानों की छातियों पर
उस समय
फटेहाली का मारा
एक गरीब
चीख-चीख कर
बता रहा था
आने वाले कल,
वर्तमान आज के बारे में
कि किस प्रकार
एक दिन हो जायेगा
समस्त मानवीय मूल्यों का ह्रास,
टूटेंगे रिश्ते,
मरेगी संवेदनाएँ
सिकुड़ती दुनिया के साथ-साथ
रो-रोकर
कह रहा था
कि कैसे जनता
दफन कर दी जायेगी/ हो जायेगी
बाजारवाद की अमरलता में
शायद उस वक्त
कर दिया था उसे
पागल साबित
हम लोगों ने ही
और कर दिया था
जारी, एक प्रमाणपत्र
उसके नाम
पागलपन का
शहरीकरण की चकाचौंध
और बाजारवाद के
मायाजाल में
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शकील की पत्नी
शकील की पत्नी
जननी कहती है
नहीं दूँगी मैं
जन्म बेटियों को
अपने देश के
खूँखार लोकतंत्र में
जहाँ भक्षक
रक्षक के मुखौटे पहन
खेलेंगे
हमारी बेटियों के खून से
नहीं दूँगी मैं
जन्म बेटियों को
इस देश के
वहशी लोकतंत्र में
जहाँ पुरूष रूपी गिद्द
नहीं बख्शेगा/ छोड़ेगा
अपने घिनौने पंजे की वार से
हमारी नन्ही, निश्छल, भोली
और कच्ची उम्र की
बच्चियों को भी
नहीं दूँगी मैं
जन्म बेटियों को
इस देश के
बेखबर लोकतंत्र में
जहाँ उन्हें
रोटी, कपड़े
और दवाईयों
के लिए भी
बेचने पड़ेंगे अपने जिस्म
अलग-अलग सौदागरों के पास
शकील के बार-बार
आग्रह पर
पत्नी जननी
आवेशित होकर
फिर झल्ला उठती है-
“क्यों दूँ मैं
जन्म बेटियों को
ताकि, घृणित विषैले समाज में
अफवाहों का बाजार
गर्म हो सके,
सुनती रहे वह ताना
अपनी चढ़ती उम्र का
और झेलती रहे
परिवार की फटेहाली,
बाप की बीमारी
और माँ की लाचारी
क्या सिर्फ इसलिए मैं
जन्म दूँ बेटियों को
कि जला दी जाए
वे दहेज के नाम पर
या चढ़ा दी जाय बलि
धर्म के नाम पर
इस दोगले लोकतंत्र की आढ़ में”
– परितोष कुमार पीयूष