कविता-कानन
खदबदाती हाँडी
सिर पर धरे खदबदाती हाँडी
तमाम उम्र महसूसती रही
युगों की पुकार
दीवानी बयार
सम्मोहित करते लम्हों के कुछ टुकड़े
पेड़ के नीचे दाना कुतरती गिलहरियों के
मनभावन मुखड़े
टहनियों से थिरकती नन्ही सी छाँह की लकीर
मन को तसल्ली की गाँठ में कसती अनछुई पीर
जिसके सहारे उसने धरी थी वो
खदबदाती हाँडी
ढोया था सिर पर एक गर्म ख़्वाब
क्यारी में बोने के लिए झोली में भरे थे
कुछ रंग-बिरंगे बीज
जगाने चली थी बिटिया की सोई तक़दीर
सोचा था ,ढोना कुछ मायने नहीं रखता
अगर —
पलकों पर उगे देखेगी सुनहरे सपने
लग जाएंगे पँख राजदुलारी के
फूल खिलखिलाएंगे ,गीत गुनगुनाएंगे
सब मिलकर खुशियों का करेंगे स्वागत
नहीं जानती थी ,हाँडी बदल लेगी अपना सिर
सलोनी बिटिया का झुलस जाएगा चेहरा
ख्वाबों के परकोटे उधड़ जाएंगे
वो —तन्हा ,सपने को धुंध में समाते
बस झुलसकर ,देखती रह जाएगी
सपनों की दुनियाँ भरभराकर
यूँ ही ढह जाएगी ——
क्या इसी दिन के लिए उसने सिर पर
ढोई थी —वो खदबदाती हाँडी !!
– डॉ. प्रणव भारती