गीत-गंगा
कौन है निरुपाय
ज़िन्दगी की पटरियों पर
रोटियाँ धर
फिर नया अध्याय
लिखने चल पड़े वो
आरियों से काटता हो
दिन जहाँ पर
पाँव के छाले वहाँ
कब हैं सताते
गाँव से जिस ठाँव
की ख़ातिर चले थे
ठाँव वे ही आज तन
को हैं जलाते
था, चुना जिनको
सहारा इन पगों ने
शब्द बस उनके लिये
असहाय, लिखने
चल पड़े वो
जो हमेशा से रहे
घर को बनाते
वो घरों में कब
सुकूँ से रह सके हैं
पार करवाते रहे हैं
जो नदी को
पुल कहाँ बनकर नदी-
नद बह सके हैं
भूख से लड़ते हुए
इस ज़िन्दगी का
एक अंधा न्याय लिखने
चल पड़े वो
रोटियों का बल लिये
वो पाँव ख़ाली
क्यों दिशाएँ
नापने को बढ़ रहे थे
मौन! उनका कह रहा है
चीखकर यह
किस तरह आधार
ख़ुद में ही ढहे थे
अब नहीं कुछ
माँग रखना चाहते हैं
कौन है निरुपाय, लिखने
चल पड़े वो
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स्वार्थ का क़द
चिड़िया सोच
रही है अपना
नीड़ बचाए कैसे
महानगर के
कुंठित मन ने
कहाँ पीर की
भाषा जानी
ऊपर से
हत्यारा मौसम
मार चुका
आँखों का पानी
हक़! लाठी के
सम्मुख अपनी
भीड़ बचाये कैसे
जहाँ स्वार्थ का
क़द, पर्वत को
बौना कर देता है
और सागरों
के तल तक का
संयम हर लेता है
जंगल वहाँ
चिरौजी, शीशम,
चीड़ बचाये कैसे
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तब क्या थे, अब क्या हैं
नहीं ज़रूरत रही
शहर को मज़दूरों की
अब लौटे हैं गाँव, वहाँ पर
क्या पायेंगे?
छोड़ गाँव की खेती-बाड़ी
शहर गये थे
दिन भर की मजदूरी में
दिन ठहर गये थे
सपनों से कैसे
सच्चाई झुठलायेंगे?
शहरी जीवन के शहरी
अफसाने लेकर
त्योहारों में आते थे
नज़राने लेकर
तब क्या थे
अब क्या हैं
कैसे समझायेंगे?
टीस रहे हैं कबसे
उम्मीदों के छाले
पूछ रहे हैं प्रश्न भूख
से रोज़ निवाले
कहाँ आत्मनिर्भर होंगे
कैसे खायेंगे?
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तथागत कामनाएँ
क्यों तुम्हें दो दृग जहाँ में
ढूँढते रहते हमेशा
जब हृदय से धमनियों तक
तुम निरंतर बह रहे हो
हैं जहाँ पर शब्द मेरे
तुम वहाँ पर बोध बनकर
इस हृदय की कामना में
सत्य पथ का शोध बनकर
तुम बने उल्लास मेरा
और विरहन बन दहे हो
तुम वही हो पा जिसे मैं
वन-पलाशों में खिला हूँ
तुम वही जिस सँग झरा हूँ
और मिट्टी में मिला हूँ
तुम वही जो बाँचता हूँ
और तुम ही अनकहे हो
आँसुओं से गढ़ रहे हृद में
अजन्ता की गुफाएँ
तुम समय के शांति पथ में
हो तथागत कामनाएँ
एक पावन-सी पवन बन
साथ तुम मेरे बहे हो
– राहुल शिवाय