कविताएँ
कुछ शीर्षक विहीन कविताएँ
कुछ कहना चाहते थे वह
समूह में चुप थे जो
जो चल रहे थे एक के पीछे एक
कतारबद्ध और योजनाबद्ध
प्रयोजनो में लिप्त
अब ऊब रहे थे वह
उनकी कतारें परिलक्षित करती थी
एक खास रंग को,
और थोड़ा सिमटे हुए विचारो को
जो यह मानती थी
कि
जो कतार में है
जो साथ चल रहा है
सही सिर्फ वही है
विचारधारा के अनुसरण से
पास दिखता साफ-साफ़ फायदा नहीं घटा रहा था
उस उबन को,
वो एक नीली पृथ्वी को चाहते थे अपने झंडे के रंग में रंगना
तब पृथ्वी कुछ तेज़ दौड़ी थी
उस युग के बीत जाने के बाद
उन्होंने कहा,
हर बार की तरह
हम चाहते तो थे तब बोलना!
वो रशिया में थे,
जर्मनी में
और
अमेरिका में थे,
प्राचीन भारत की गोद से फिसल कर
मध्य भारत के आँगन में अटके थे वह
वह जापान में थे
और अफ्रीका में भी,
उन्होंने ही गांधी को ट्रेन से धक्का दिया था
और हिटलर के स्वप्न में
किसी बोनापार्ट के हाथो इतिहास का काला पर्दा लहराया था,
वह जिद में थे
और संविधान की ओट में थे
वह जानते थे
सबसे आसान होता है अपने मत को राष्ट्रगौरव से जोड़ना,
आप यकीन नहीं करेंगे
वह तब भी थे जब राष्ट्रों में बटी यह दुनिया शैशवावस्था में थी,
और जब गढ़े जा रहे थे
सुकरातो की हत्याओं के जबरन मान्य सिद्धान्त,
वह इतने चतुर थे कि उन्होंने गढ़ लिया था
हर काल में एक नया ईश्वर
वह अभी भी हैं
हमारे और आप के देश में,
एक समय-चक्र के बाद वह निकलेंगे अपनी सबसे सुरक्षित मांद से,
वह जो बोलना चाहते है अभी,
उनसे बोला जाये
वह कतार टूट सकती है
और टूट सकता है कदाचित
वह आदिकालीन सम्मोहित भ्रम भी,
उनके चुप रहने से उपजी ऊब की सड़न,
हमारी पृथ्वी को फिर से थका रही है
हम हैरतअंगेज तरह से लंबी उम्र पा रहे है
जबकि वह इन्तजार में है
हमारे मरने के,
और अफ़सोस में कहने के
कि
हाँ हम चाहते थे तब बोलना!
हमें कहना होगा, बोल पड़ो!
एक सर्वकालिक अर्धनिद्रा की टूट के लिए
एक अनचाहे नागपाश की संजीवनी सा
तुम्हारे गले का कंम्पन,
किसी देश की पवित्र संसद का घण्टा होगा!
वह उन्हीं अकड़े हुए मनुष्यों में थोड़ा सा चौंक उठे लोग थे,
कुछ कहना चाहते थे वह,
सड़ी हुई उबन में किसी ताज़ी हवा की सुगंध थे वह
उनका बिखर कर फैलना बाकी था अभी
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जब मैं दुःख में था
एक शहर बुरा, बहुत बुरा था
और नाते-रिश्ते जैसे थे ही नहीं,
तब मैं सोचता था
एक बहुत अच्छा शहर
और याद करता था
ढेरो-ढेर प्यार देने वाले चाचा, मामा और बुआ,
तब मैं एक फैसला हमेशा स्थगित रखता था
कि मैं अच्छा था या बुरा!
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जेब के खाली होने से याद आया
तुमसे मिलने का वादा है आज
और
देने हैं लोगों को कुछ हिसाब उधारी के
अब फ़ोन बंद करके मैं चल पड़ता हूँ तुमसे मिलने,
तुम पक्का मिलोगी
यहीं-कहीं शहर की किसी भटकी गली में,
तुम जहाँ प्रतीक्षारत होना मेरे लिए
मेरा कभी न टूटना याद करना
और
घर जाना खुश होकर कि हम मिले तो है सच में
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हवा सूंघते हैं लोग
माहिर और शिकारी की तरह
और बताते हैं मुझे
शहर का माहौल ख़राब है बहुत
और पास खिसक आते हैं घुटने जोड़ कर बैठे हुए लोग,
फुसफुसाते हैं
फलाने ने ढिमाके से बड़ा ख़तरा बताया है शहर को
हैं .. हैं .. कहते और आँखे फाड़ते हैं लोग
हवा फिर उड़ चलती है बाकी शहर की तरफ
फलाने से ढिमाके के कानों तक
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सड़क चुप थी
और चुप मैं भी था,
हर मिनट एक कोलाहल आ जा रहा था
हर मिनट चीख रहा था एक शोर अपनी मृत्यु पर
बिलबिला रही थी धूप
उसी सड़क की पीठ
और तिक्त हुए मेरे चेहरे पर
एक मौन किसी ढीठ सा जीवित था उसी सड़क पर
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जागो,
थक चुकी ठंडी देह के स्वामी
तुम कैसे लेट गए
कैसे हुए तुम चुप
रक्त से भयानक हुए चेहरे को क्यों देखा तुमने,
और क्यों सोचा एक संभावित हार के बारे में,
जैसे एक पृथ्वी की जड़ विहीनता कहती है उसे,
फिर भी टिके रहना है तुम्हें
जैसे सबसे महान त्याज्य याद दिलाता है मुझे,
मैं हूँ संसार के सबसे पुष्ट प्रमाणों की तरह
और मैं बना रहता हूँ सबसे उदण्ड अवहेलना जैसा
वैसे ही तुम उठो
और किसी उत्तरदायित्व सा याद करो
असफल क्रांतियाँ हाशिये पर जगह पाती हैं
उठो
और संसार के सभी चेहरों पर
लाल स्याही की खबर जैसा फ़ैल जाओ
हर कान में उतार दो अपने आवाहन को,
हाँ यह पृथ्वी हमें ही हरी करनी है
और हम ये कर लेंगे
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देखो,
बारिशो के मौसम में तीन बातें होती हैं
या बारिश अच्छी होती है
या नहीं होती है
या बहुत होती है
और
एक बात अनिवार्य होती है
दुनिया की हर बारिश से पहले
किसान की सोच में सूदखोर आता है
तमाम अनिश्चितताओं में
किसी निश्चित हो सकने वाली बात के जैसा
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तुम देते हो एक क्षण
और
कई विकल्प
हमेशा से बंद एक दरवाजा देते हो
जिसे चुने बिना वह दरवाजा नहीं खोला जा सकता
जबकि तुम्हें देना था एक क्षण,
मैं लपक कर उछल पड़ता उस तक
और झट हाथों से फिसल गायब होता वह,
वह विकल्पों में फस कर एक युग सी उम्र न बिताता
क्षण होता तब वह!
– वीरू सोनकर