गीत-गंगा
कितना खोया कितना पाया
उड़ते-उड़ते पंछी कितनी दूर निकल आया
नदिया, पनघट, पगडंडी, चौपालें छूट गयीं
अमिया, पीपल, बरगद की वो डालें छूट गयीं
गर्मी, सर्दी, वर्षा, पतझड़ औ’ बसंत के दिन
ज्वार, बाजरा, गेहूँ की वो बालें छूट गयीं
सिर्फ धूप ही धूप मिल रही नहीं कहीं छाया
उड़ते-उड़ते पंछी कितनी दूर निकल आया
हँसी ठिठोली, मान मनव्वल, उत्सव छूट गये
सपनों की खातिर वो प्यारे कलरव छूट गये
औसारा, आँगन, मुँडेर, दीवारें औ’ द्वारे
मीठे, कड़वे, पक्के, खट्टे अनुभव छूट गये
स्मृतियों में कुछ पल खोकर खुद को बहलाया
उड़ते-उड़ते पंछी कितनी दूर निकल आया
नये ठौर पर बिना रोक अवसर स्वछंद मिले
इत्रों के बाज़ारों में पर कब मकरंद मिले
रोज़ घड़ी की सुइयों के सँग ऊँचाई पायी
लेकिन झंझावातों में सब द्वारे बंद मिले
सोच रहा कितना खोया है, कितना है पाया?
उड़ते-उड़ते पंछी कितनी दूर निकल आया
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छले कहाँ मारीच
गीली लकड़ी अरमानों की
सुलगे चूल्हे बीच
जब चूल्हे की आग जली तब
बुझी पेट की आग
जिस दिन बुझा रहा चूल्हा तब
जली पेट की आग
इसी आग में जल-सा जीवन
हमने दिया उलीच
गीली लकड़ी अरमानों की
सुलगे चूल्हे बीच
रोज़ धुआँते-से दिन बीते
राख हुई सब रात
किये मशीनी ये अपने तन
जब्त किये जज़्बात
गला हड्डियाँ हम कलयुग में
बनते रहे दधीच
गीली लकड़ी अरमानों की
सुलगे चूल्हे बीच
हमने अपनी इच्छाओं के
जकड़े रक्खे पैर
कभी स्वर्ण नगरी की मन को
नहीं करायी सैर
हमें रोटियाँ ही छलती हैं
छलें कहाँ मारीच
गीली लकड़ी अरमानों की
सुलगे चूल्हे बीच
– गरिमा सक्सेना