गीत-गंगा
काँटों का लश्कर है
सिसक रही हैं नन्ही कलियाँ,
ये कैसा मंजर है।
कोमल कलियों की गलियों में,
काँटों का लश्कर है।।
अपने घर में घात लगाये,
बैठे बाज शिकारी।
सोन चिरैया सहमी-सहमी,
सहती घात करारी।
लाज बचाओ कुंजबिहारी,
अब जीना दुष्कर है।
कोमल कलियों की गलियों में,
काँटों का लश्कर है।।
गूँगा-बहरा हुआ प्रशासन,
फिसल रहीं सुविधाएँ।
दर-दर भटक रही अबलाएँ,
कुंठित अभिलाषाएँ।
ज़ख्म हुए नासूर व्यवस्था,
लाइलाज बदतर है।
कोमल कलियों की गलियों में,
काँटों का लश्कर है।।
रहो न केवल कोमल कलियाँ,
बनो शक्ति वरदानी।
तुम संहार करो दुष्टों का,
बनकर समर भवानी।
मनुज नहीं वह पापी, पामर
दुष्ट, दनुज निश्चर है।
कोमल कलियों की गलियों में,
काँटों का लश्कर है।।
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सपनों ने कर दिया पलायन
जबसे बरसे ग़म के बादल,
खुशियों के शापित वातायन।
हाथ पकड़ कर कुंठाओं का,
सपनों ने कर दिया पलायन।।
पर्वत-सी है पीर हठीली,
अंतस के झरने हैं सूखे।
संवादों की बढ़ी ढिठाई,
नेह-प्रीति के पल हैं सूखे।
घर-घर के इस महासमर से,
रूठ गई गीता रामायन।
हाथ पकड़ कर कुंठाओं का,
सपनों ने कर दिया पलायन।।
सुरसा-सी बढ़ रहीं आजकल,
इस जीवन में असफलताएँ।
पग-पग ठोकर खातीं देखो,
ठगी-ठगी-सी अभिलाषाएँ।
इच्छाओं की बलिवेदी पर,
सपनों का कर रहे आचमन।
हाथ पकड़ कर कुंठाओं का,
सपनों ने कर दिया पलायन।।
छलनाओं के नये दौर में,
दीप आस का एक जला दे।
कर्मठता की राह पकड़ कर,
जीवन की लय-ताल मिला दे।
मुस्काएगी सरस ज़िन्दगी,
ख़ुशियों का बरसेगा सावन।
हाथ पकड़ कर कुंठाओं का,
सपनों ने कर दिया पलायन।।
– विजया ठाकुर