कविता-कानन
1.
तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण
न होने के वावजूद भी..
मेरा होना इतना
निरथर्क नहीं
जितना
धूप और परछाई का
अनचाहा रिश्ता..
पानी का ठंड से
अप्राकृतिक सम्बंध..
काँटो के बीच
खिलखिलाते पुष्प..
अमावस का चाँद
पे घमंड..
तुम्हारे आग़ोश से
निकलने के बाद
पंच तत्व में खोने
की इच्छा भी
कैसे रखे कोई..
अपना जीना
तुमपे मरने पर
निर्भर है ..और सुनो
मेरे होने की खबर
सच है..
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2.
यक़ीनन पृथ्वी के इन्हीं
खाली मैदानों के बीच
किसी सूखे वृक्ष ने
सर्वप्रथम छेड़ा होगा
उत्पीड़न
के ख़िलाफ़ बग़ावत
की ऐसी धुन को.
किया होगा जिसने अपनी
परछाई से सूरज के उस
जलती रोशनी से लड़ने का
दुस्साहस
और इंकार कर
दिया होगा अपने सूखे नंगे बदन पर
चिलचिलाती धूप की जलन को
अब और सहने से..
अपनी छाँव के
नन्हे साहसी क़दमों
के कदों को बढ़ाते हुए
तय किया होगा
एक अनंत सफर
उस परछाई से..
और धकेल दिया होगा
धधकते सूरज,
उसकी तपन को
शाम की शीतलता में
चाँद की हवेली तक.
– विधान