कविता-कानन
1.
अभिसार के पश्चात् भी
बहुत कुछ रह जाता है मौन!
घुटी- घुटी सी …
अभिलाषाएँ!
मूक होकर भी, करती हैं संवाद!
वो जो अनकहा रह गया …
शायद!
हल्की- सी, बावली- सी
छुअन!
एक कसम!
एक तरंग!
एक राग!
जो उमड़- उमड़ कर
रह गया शेष!
मुँह बाएं किये –
जा चुका है साथी!
अभी तो,
अपनी कामनाओं का …
खोला भी नहीं पिटारा।
अनंत में,
विलीन भी नहीं हुई
मुस्कान!
देखो!
अट्टहास कर रहा है समय!
न जाने
ये कालरात्रि!
कभी ख़त्म होगी भी
या नहीं?
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2.
अनगढ़ ही रहने दो …..
मत तराशों मुझे!
महज़ किसी
मूरत की शक़्ल देने की ख़ातिर ….
मुझे मेरे
वजूद के जड़त्व के साथ ही
स्वीकारना होगा तुम्हें…….
कि अनायास,
वादी पर उगा कोई फूल
पहाड़ की नाभि से फूटी कोई धारा
झाड़ियों से झाँकती रश्मियाँ
आसमान पर छाए मेघ
इंद्रधनुष
मिट्टी की सौंधी सुगंध
चिड़ियों का कलरव
दूब पर जमी ओस की बूंद
और
जाड़े की मुलायम धूप
अपने लावण्य से ही
सुंदरता का पर्याय बने हैं ….
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3.
दो लोगों के बीच का सच!
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा
लील जाता है पूरी तरह से
जीवन के उल्लास को …
अकुलाते देह के भीतर
जब कसमसाती हैं भावनाएँ
तब मन की
पीड़ा का बोझ
बढ़ जाता है
थोड़ा और …
स्त्री जब प्रेम में होती है
तब तन , मन ,
और धन से
करना चाहती है
समर्पण!
खो देना चाहती है
अपना सम्पूर्ण वजूद ….
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में।
किंतु सुपात्र!
की तलाश में
उन्मत्त भी रहती है –
उम्र भर ….
फ़र्ज कीजिये –
किसी जोगन को अगर लग जाए
प्रेमरोग!
तो विडम्बना की पराकाष्ठा
भला इससे बड़ी और क्या होगी….
वास्तव में,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग……
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है….
मात्र प्रीत के,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश
शायद!
अधूरी ही रह जाती है
जन्मों तक …
क्योंकि
कहीं न कहीं
प्रेम
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा
चाहती है विस्तार …..
– अनु