कविताएँ
ज़िंदादिल लड़की
लड़की पली है
बड़े अभावों में
गेंदा, गुलदाऊदी, गुलाबों से दूर
नदी से पानी भर लाती रही
घर भर को
खुश है फिर भी
खिलखिलाती है बात-बात पे
घिसती रही बर्तन
सुबह से शाम ढले तलक
उगता रहा सूरज
और डूबता रहा
उसको क्या!
उसने नहीं ओढ़ी कभी
गोटे किनारी की ओढ़नी
पर
अपने सूती लंहगे ओढ़नी में
लजाती है दर्पण के सम्मुख
देह के सरोवर में प्रतिबिंबित अक़्स देखके
ख़ुशी से दमकती नदी में फेंकती कंकर
कभी-कभी भूखी भी रह जाती है
पर पड़ोस की कमली चाची के
मनाने पर भी नहीं खाती मांग के रोटी
काजल, बिंदी, चूड़ी से महरूम लड़की
पूर देती है हर कमी
अपनी निर्दोष मुस्कुराहट से
उसकी देह से फूटा नैसर्गिक सौंदर्य
दुगना कर देता है उल्लास
नही रोती बात-बात पे
अपनी अल्हड़ अठखेलियों से
चुनौती-सी देती लगती है
कमियों और अभावों को
ज़िंदादिल लड़की
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कस्बे की लड़की
सूरज के जागने से पहले
जग जाती है
चिड़ियों के साथ
गाती है
अधखुले पंखों वाले गीत
चूजों की सुगबुगाहट से
उल्लास से महकती
कलियों की मुस्कान
सजा रक्तिम अधरों पे
सजती-संवरती है
हवा-सी सरसराती है
घर में उधर-उधर
उगती हैं सूक्ष्म-तरंगें
मचलता है
ज्वार-भाटा
पर
उछालें मारती
ध्वनियों का विरोध कर
धार लेती है
शान्त नदी-सी नीरवता
पढ़-लिखके बेकार और
ब्याहे जाने की उमर तक
अनब्याही रही आने का अफ़सोस
नहीं जताती अपनी उदासी से
अनपेक्षित कार्यकलापों को
नहीं देती अंजाम
माता-पिता, भाई-बहन के दुखों से
कम करके आंकती है
अपने रिस रहे दुःख
होने नहीं देती
माहौल को संज़ीदा
अपने अश्रुओं के काढ़े को
आँखों के कटोरे से
उड़ेल देती है
हलक में
और आउटपुट में निकालती है
खिलखिलाहट
बिखरे बाल, रूखा चेहरा
लाल आँखें-गुस्साई आवाज़
निशानियाँ हैं
बेकार लड़कों की
लड़की का अपना नजरिया है
बाँट के दर्द अपनों के
अधपकी खुशियों के
पक जाने के इंतज़ार तक
उलझाये रखती है खुद को
हर उस काम में
जिससे
किसी को रंज़ न हो
ऐसे जताती है अपना विरोध
समाज, व्यवस्था और बेकारी से
कस्बे की लड़की
– आरती तिवारी अंजलि