कविताएँ
पिता
वे सिर्फ एक छत ही नहीं,
पेपरवेट भी थे
जैसे ही हटे,
हम
कागज के पन्नों-से
बिखरते चले गए
………………………………………….
समझौता
वो क़यामत की रात थी
समस्त प्रेमी वर्ग
बिना छातों के
मूसलाधार को झेल रहा था
गर्भवतियां
एबॉर्शन करवाने वाले डॉक्टरों के नंबर
तलाश रही थी
कुत्तों ने
सूरज ढलते ही रोना शुरू कर दिया था
गृहस्थ
जल्लादों के पतों पर धरना दिए हुए थे
कुंवारे
महंगे पबों में
जश्न मना रहे थे
उस रात प्रेम को समझौता नाम दिया गया था
……………………………………………….
जहाँ (करवा चौथ के दिन)
कल
जहाँ
दबी हुई चीख
दफ़न हो रही थी
अपने ही भीतर
उसी छत के ऊपर
आज
चन्द्रमा की
बाँट जोह रहा है
कोई
……………………………………
आधुनिक असभ्यता का भविष्य
गर्भ में छुपा हुआ भविष्य
क्या ढूंढ पायेगा
हम में कोई सभ्यता
जैसे
हमने तलाशा है
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा को
या उनके हाथ
पोलिथिन की थैलियों और
डिस्पोजेबल बोतलों में ही
फंसे रह जायेंगे
वैसे, जब भी सुनता हूँ
समकालीन परिदृश्यों में
विडम्बनाओं के स्वर,
हृदय धिक्कारता हुआ कहता है,
उन थैलियों और बोतलों के नीचे
राख़ ही छुपी मिले तो बेहतर है!
……………………………………………..
यथार्थ
जब मैं स्वयं को
सम्पूर्ण रूप से
पवित्र समझ चुका था,
उसी समय
एक मच्छर ने
फटी बनियान से बाहर झांकती पीठ पर बैठ
मेरा खून चूस लिया
और उड़ेल दिया ले जाकर,
वही कहीं, जहाँ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं
– हर्षिल पाटीदार नव