कविताएँ
धर्म
अपनी महानता का
विस्तार कर
अपने ही नाखुनों से खुरच
खुद को लहूलुहान कर रहा है,
भरमाने के लिए
ओढ़ी गयी उसकी चादर
जगह जगह से फट
निपर्दा हो रही है,
उसने छोड़ दिये हैं
सभी अस्त्र-शस्त्र
जो आक्रान्त कर रहे हैं
समाज/सभ्यता को
उसके स्थापित होने में,
राजसूय यज्ञ कर
अश्वमेघ की तैयारी कर रहा है धर्म
शस्त्र धर्म को अश्वमेघ बनाएगा….!
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संवेदना
तुम्हारे लिए मैं अधिकार हूँ
और तुम मेरे लिए संवेदना
तुमने मुझे जाना है
यंत्रवत प्रेम करने वाला
मेरी भावना में
सम्पूर्ण समर्पण है
पर तुमने इसे लेन-देन का
उद्योग माना है
एक प्रत्याशा के अभिभूत
खिंचा चला आता हूँ
तुम्हारे आँचल के छोर में बंधने
जबकि तुमने आँचल को
किसी और के लिए खुला छोड़ रखा है
मेरा प्रेम/ मेरा उत्साह/ मेरी अभिलाषा
सीमित है तुम तक
तुम उपादान हो मेरे होने का
पर तुम्हारे लिए सदा मैं घुमन्तु बादल ही रहा आया हूँ
कब मैं भी तुम्हारी संवेदना बनूँगा
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पहाड़ों के पत्थर
पहाड़ों के पत्थर
असीम वेदना के प्रतिनिधि हैं
जिन्होंने सदियों से
बर्फीली आँधियों की कंपकपाहट के नीचे
चोंटियों को झीजते देखा है
सदियों तक पवन को
अंधी उँगलियों से नंगी चट्टानों पर
जीवन की हरियाली की एक
छोटी-सी फुनगी को भी छू सकने की निराशा में
हाहाकार करते देखा है
जो अभिमान में ऊँचे ऊँचे उठे जरूर हैं
पर अंहकार की तरह ढह गए हैं
पहाड़ों के पत्थर सचमुच
पहाड़ों-सा दुःख सहते हैं
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संक्रमण काल
एक धुंध है
जो मेरे आस-पास
फैलता जा रहा है
जो रोशनी-सा है
लेकिन रोशनी नहीं है
स्याह सा है कुछ
पर पथराया हुआ सा
हल्का पारदर्शी लग रहा है
सबकुछ घटित हो रहा है
पर पूर्ण नहीं हो रहा है
है अपूर्ण भी नहीं
प्रत्येक क्षण मुझे
कभी विशाल/ कभी सूक्ष्म
महसूस होता है
मैं उस क्षण को पकड़ने
अपनी सम्पूर्ण चेष्टा लगा रहा हूँ
लेकिन पाता हूँ कि
वह मेरा खुद पीछा कर
मुझे निगल रहा है
शायद वह धुंध नहीं
मेरा संक्रमण काल है
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झूठ का ठूँठ
मैं आज
फिर हार गया
झूठ के खड़े ठूँठ से
मेरे शब्दों का
शीतल/ स्निग्ध प्रवाह
उसकी आसन्न भयक्रांता से
झुलस गया
मैं ऐसे ही
नहीं हार सकता था लेकिन
झूठ ही सत्य बन चुका था
और
सत्य ही झूठ
वो देखो
हर जगह उसने
अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया है
और हँस रहा है देखकर
सत्य के पराजित ना होने वाले अश्वों को
जो कभी अश्वमेघ थे
यही समय का परिवर्तन है
जो पहले प्रमाणित था
आज अप्रासंगिक है
जो कल निषेध था
आज प्रासंगिक है
– नीतेश हर्ष