कविताएँ
शिकायतें
बाद मुद्दतों के
अभी तलक
वो तमाम शिकायतें
वहीँ, वक़्त के उसी मोड़ पर
किसी मजबूत मीनार की तरह
खड़ी मिलती हैं
जहाँ से दो जिंदगियों ने
चुक गए प्रेम की बैसाखी
का सहारा लेने से ज़्यादा
बेहतर समझा था
लड़खड़ाते क़दमों से
अपने-अपने क्षितिज को
तलाश लेना ….
गौर से देखो
तो दिख जाती हैं
कि
ढह गयीं हैं कुछ ईंटें
गुस्से, अहंकार और बदसलूकी की
और चढ़ गयी है तमाम गर्द
परत-दर-परत
दुःख, खीझ, आत्मग्लानि और पछतावे की …
लेकिन फिर भी शिकायतें हैं कि
न उखड़ती है, न ढहती हैं
खड़ी है वहीँ
बिना डिगे………बड़ी मुस्तैदी से
रिश्तों में वापसी की संभावना को
ख़ारिज करते हुए….!!!!
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परिवर्तन
सुना था परिवर्तन
संसार का नियम है
फिर क्यों ?
मेरे मन का मौसम
ठहर सा गया है
फिर क्यों रुके हुए हैं?
वो सारे पल
जिनमे तुम हो !!
उस रात जब तुम
चांदनी बटोरने
आये थे मेरी छत पर
और समेट ली थी
बूँद-बूँद चांदनी
तुमने मेरे आँचल में ..!
वो रात बुन रही थी
सपनों की रुपहली चिलमन
जिसके उस पार
हमारे चारों तरफ़
किसी नर्म सफ़ेद
बिछौने की तरह
बिखरे थे मोगरे के फूल
जिसकी भीनी-भीनी खुश्बू मे
हमारा रोम-रोम सुवासित
हो उठा था …!
कि तभी !
दूर कहीं
कोई मस्त मलंग
गाने लगा था
प्रेम गीत
जिसकी मधुर धुन
हम-तुम मिलकर
गुनगुना रहे थे …!!
आज भी
वो रात
वो चांदनी
वो मोगरे
वो धुन
सब कुछ तो
वहीँ ठहरे हुए हैं
फिर क्यों न मैं मान लूँ ?
कि
ठहराव ही संसार का नियम है …!!!
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रिश्ते
शातिर दिमाग़
अक्सर ये सोचकर
ख़ुश होता रहता है
कि
उसकी सोची समझी चालों ने
परास्त कर दिया है
किसी अपने को
झुका लिया है पैरों पर
अपने स्वार्थ की ख़ातिर …किसी के स्वाभिमान को
छीन लिए हैं
अपनों से उनकी हँसी और खुशियाँ
और
पार कर सारे अवरोध
जीत लिये हैं
सभी शिखर
अब बस जीत है
और जीत का जश्न है ….!
लेकिन !
वास्तव में, है वो कितना नादान
जो समझ ही नहीं पाता
कि
उसकी शातिराना चालों ने
दरअसल, उसे गिरा दिया है
अपनों की उन नज़रों में
जिनमे होता था
उसके लिए
निश्छल प्रेम और
अगाध विश्वास ……!
काश!
वो समझ पाता कि
रिश्ते, सम्बन्ध
ईश्वर से मिली सौगात है
दाँव खेलने की बिसात नहींj….!!!!!!
– आभा खरे