कठपुतली, मेरा मन
कठपुतली
मैं जानती थी
तुम्हें और तुम्हारे प्यार को
मुझे लगता था
तुमने प्यार की डोर से
मुझे बाँध रखा है
मैं उस बंधन से मजबूती से बंधी हूँ
जरा दूरियाँ बढ़ी नहीं
और डोर में आया तनाव या खिंचाव
मुझे और मेरे वजूद को तकलीफ देता है
और मैं करीब आ जाती हूँ
तब महसूस करती हूँ राहत
पर
आज मैंने करीब आकर
राहत नहीं महसूस की
मैं बेचैन हूँ ये देखकर
कि प्यार की डोर का दूसरा सिरा
जो तुमसे बंधा होना था
वो आजाद है हर बंधन से
तभी तो इस डोर में आये
तनाव का असर भी तुम पर नहीं होता
तभी तो मेरे दूर जाते ही
कभी तुम खिंचे नहीं आये मेरे पास
दरअसल
तुमने तो वो प्यार की डोर
अपनी उंगली में लपेट रखी थी
तुम व्यस्त थे
अपने ही कामों और अपनी ही दुनिया में
एक सच ये भी था मैं तो हमेशा अपनी जगह पर ही थी
जो तनाव या कसाव मैं महसूस करती थी
वो तुम्हारे काम करते हुए
हाथों की हरकतों की वजह से होता था
और मैं दोषी खुद को मानकर
तुम्हारे करीब आती रही
पर आज
तुम्हारी उंगलियों पर बंधी डोर ने महसूस करवाया
मेरी जीवन डोर तुमसे बंधी तो है
पर वो प्यार का बंधन नही है
तो क्या कहूँ?
कैसा है ये बंधन?
क्या नाम दूँ इसे?
सोच ही रही थी
तभी घर के बाहर गली में शोर सुनाई दिया
खिड़की से झांककर देखा
तो कठपुतली का तमाशा दिखाने वाले आये थे
एकाएक मेरे सवालों का दौर थम गया
मेरे वजूद पर मन में उठे सवाल का जवाब मेरे सामने था
“कठपुतली”
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मेरा मन
वो जो है
‘हमराह’
मेरी खुशियों का,
मेरे गमों का,
मेरे हर आंसू और मुस्कान का
वो जो है
‘हमदम’
मेरी बातों का,
मेरी खामोशी का,
मेरे एहसासों और जज़बातों का
वो जो है
‘हमराज’
मेरी हसरतों का,
मेरे सपनों का,
मेरे हर सच और झूठ का
वो जो है
‘हमसफर’
मेरे हर दर्द का,
मेरी यादों का,
मेरी मुश्किलों और अभावों का
वो जो है
‘हमसाया’
मेरी सांसों का,
मेरी धड़कनों का,
मेरी कल्पना और अभिव्यक्ति
वो तो है
‘मन’
चंचल मन,
तनहा मन,
बावरा मन,
सिर्फ और सिर्फ ‘मेरा मन’
– प्रीति सुराना