कविता-कानन
एक स्त्री
एक स्त्री इस धरती पर
चूल्हे-चौके की
परिधि से बाहर निकलकर
यदि कुछ पाना चाहेगी
तो सबसे पहले वह
नदी के साथ
सागर तक दौड़ना चाहेगी,
तितलियों के साथ
घूमकर देखेगी
दुनिया का सच,
घास बनकर
पथरीली जमीन
पर उगकर
वह देना चाहेगी
एक हरापन,
झरनों की तरह गिरकर
बिखेर देना चाहेगी
समर्पण की धारा,
बाँस बनकर छूना
चाहेेगी नीले आकाश
की अनन्तता
और बाँसुरी बनकर
संगीत का स्वर
पैदा करना चाहेगी
हर तरंग पर,
पेड़ के धुले-निखरे
पत्तों की तरह
वह थिरकना चाहेगी
दुनिया के हर कोने में
और केसर की तरह
वह घोलना चाहेगी
एक रंग
जो बेरंग दुनिया को
कर दे सचमुच में दंग
ये होगा तभी
जब वह जीत जाये
अपने भीतर से,
अपनों से
अनगिनत जंग।
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बाँसुरी
बाँसों को कहाँ पता था
कि उनके ही
शरीर से निर्मित होगी
बाँसुरी
जिसके रन्ध्रों में
पवन की फूँक से
फूटेगी मीठे
राग की अनगिनत
स्वर लहरियाँ
जिसे सुनकर
कोई चरवाहा
अपनी बकरियों को
अपनी बेटियाँ
मानने लगेगा
और फिर
कभी न बेचेगा
उन कसाईयों के हाथ
जो अक्सर
उन मासूम चीखों को
अनसुना कर देते हैं
अपने कसाईबाड़े में।
– कुमार पवन