गीत-गंगा
एक छोटा-सा अंतराल
एक छोटा-सा अंतराल था
आना नहीं हुआ
सबकी बातें अपनी-अपनी
क्या लेना क्या देना
किस्सा-किस्सा तोता मैना
कोई इसे सुने ना
कोयलिया का अमराई में
गाना नहीं हुआ
है बबूल पर तेवर देखो
होता आग बबूला
मौका पाकर लोगों ने ही
जमकर इसे वसूला
इधर-उधर की बातें सुनकर
जाना नहीं हुआ
इस डाली से उस डाली तक
सभी दीवाने अपने धुन के
कूद-फाँदकर भाग रहे हैं
थोड़ी-सी ही हलचल सुन के
भरी दुपहरी में पत्तों का
लहराना नहीं हुआ
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नहीं मिल रहे
नहीं मिल रहे उत्तर अब भी
प्रश्न वहीं के वहीं खड़े
समय विवश हो ऊँघ रहा है
चारपाई पर पड़े-पड़े
तन्मय होकर लिखते-लिखते
एक समय आता है
कोमल और नाज़ुक शब्दों का
अर्थ बदल जाता है
ऐसा क्यों होता है सच में
सोच रहा हूँ यहाँ खड़े
उलझ गया है बरगद देखो
बहती हुई नदी से
जो बेचैनी में कहती है
इस बीसवीं सदी से
मसला कोई कब सुलझा है
हक के खातिर बिना लड़े
बहुत दिनों से देख रहा हूँ
नज़रों का आचरण मचलते
यह आमूलचूल परिवर्तन
और कई आवरण बदलते
माना घोर उदासी है पर
ग़लत राह मत पाँव बढ़े
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धूप पूस की
बैठ पालकी धूप पूस की
रस्ता भटक गयी
घर-आँगन दालान
खोजता रहा देर तक
इधर-उधर ताका झाँका
देखा मुँडेर तक
गमले के कोने में
जाकर अटक गयी
बैरी सूरज है हरजाई
जान बूझ ठेला पुरवाई
बंद हुई खिड़की परदे पर
आँखें लटक गयी
बूढ़ा बादल चादर ओढ़े
धुँए के संग बिखर गया
टकराकर
हलचल थोड़ी
हरकत करती
सब कुछ गटक गयी
– श्रीधर आचार्य शील