कविता-कानन
एक अनुत्तरित प्रश्न!
एक अनुत्तरित प्रश्न
शांति कहाँ है?
एक अनुत्तरित प्रश्न।
ये नज़ारा जो दिख रहा
हर शहर, हर गली,
सुनाई दे रही
हर सुबह, हर शाम
यह कैसी है आवाज़?
कौन हैं वो?
जो दिखते हैं पर
पहचान में नहीं आते हैं।
जो सड़कों पर, बाजारों में
चीख-पुकार मचाते हैं
रुलाते हैं, सताते हैं।
संवेदनाहीन
मूक दर्शक से हम।
आक्रोश से भरा हुआ
हर एक मन।
शिकायतें खत्म नही़ं होती
इसकी-उसकी, मेरी-तुम्हारी,
हम-सबकी।
या तो चुप्पी लगाकर
सब देखते हैं, सहते हैं।
या व्यस्तता के अभिनय में
बगलें झाँकते हैं।
ज़िंदगियाँ भयभीत हैं बदहवास हैं
किस दिशा जाएँ किसकी आस है?
पथहीन- दिशाहीन,
बेचैन घुटती साँसें
इन्सानियत का शव
यहाँ भी – वहाँ भी!
शांति कहाँ है?
एक अनुत्तरित प्रश्न!
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वसंत
कुहुकता पूछे पपीहा,
कहाँ खिले सरसों के पीले फूल हैं?
बहती है किस गली वसंती हवा?
चहुँ ओर उड़ती पीली धूल है।
इस शहर में कैसा वसंत!
न आपसी सौहार्द्र है
न दिखे कहीं जज़्बात है।
न मेल है, न मिलाप है,
सबके अलग हीं प्रलाप हैं।
इस शहर में कैसा वसंत!
न लड़कनों के हाथ में
मीठी मटर की बेल है,
ये नगर है यहाँ हर डगर
इक नई किस्म की जेल है।
इस शहर में कैसा वसंत!
तरु आम्रमंजर थे भरे जहाँ,
इक नई खड़ी इमारत वहाँ,
जिसके तले में भींजती
श्रम-सीकरों को पोंछती
श्यामल सी बाला है खड़ी।
अवयस्क छाती से अपनी,
अपने शिशु को सींचती।
इस शहर में कैसा वसंत!
ऋतुराज
फिर भी आ जाओ,
स्नेह-सुधा बरसा जाओ।
हर चेहरे पर मुस्कान खिले,
हर मन का क्लेश मिटा जाओ।
ऐसा कुछ आह्वान करो कि
इस शहर में भी दिखे बसंत।
– विनीता ए कुमार