कविता-कानन
उम्मीद
ठूँठ होते पेड़ की
सूखी पत्तियों को बुहारा
आग लगायी
और ज़मीन साफ की
इस उम्मीद पर कि
कल कोमल, ताजी कोपलों से
फिर हरा होगा उपवन
कुछ पेड़ मगर
बरसों से ठूँठ हुए
आज भी खड़े हैं
जहाँ से बहारों का
लौट आना मुमकिन नहीं
मुझे उन्हीं
ठूँठ बने दरख्तों पर
कोपलें देखने की
ख्वाहिश है
ताकि बना रहे
उन दरख्तों का वजूद
और उन दरख्तों पर
हो अनगिनत
चिड़ियों का बसेरा
बसेरा अपने आप में
बेज़ुबानों का
एक आलौकिक प्रयास है
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कविता तपती धूप में
ईंट और सीमेंट को जोड़कर
आजकल
गर्म लहरों के बीच
कड़ी धूप में
लिख रही हूँ कविता
मैंने तपती धूप में
नंगे पाँव
हाथों और सिर पर
बोझ लिये
जब देखी
मनुष्य की विवशता
सोचती रहती हूँ ज़िन्दगी
इतनी भी सख्त होती है
दो जून की रोटी
किसी को धूप
बारिश में तपकर मिल पाती है
कुछ को वर्दी में भी दलाली और
घूसखोरी से बहुत आसानी से
मिल जाती है
ईमानदारी सिर्फ मजदूरों के
हिस्से और मुफ्तखोरी घुसखोरों के
हिस्से एक दुनिया में जीने
और मर जाने के अलग-अलग मापदण्ड
इतनी सख्त ज़िन्दगी में
तुम्हारे प्यार की बारिश
होश में ले आता है मुझे कि
ज़िन्दगी बेइंतिहा दर्द लाता है
इन असमानताओं के साथ
तब सब भूलकर मेरे हाथ भी
मिल जाते हैं उन मजदूरों के संग
बेहिचक मुझे परवाह नहीं तब
कौन क्या कहेगा
मैं सिर्फ महसूस करना चाह्ती हूँ
उस वक़्त उनकी मेहनत और
तकलीफ उनके साथ धूप में
चलकर कुछ कदम
कभी थककर रूक जाते हैं
हम और गहरी साँस ले फिर
उठाने ही पड़ते हैं कदम
ये जानकर कि थककर भी
रूक नहीं सकता कोई
रूकने से यादों की लारियाँ
उलझाने लगती हैं
कदम उलझकर रूकने लगते हैं
इसलिये हालात का सामना जारी है
– सुधा मिश्रा