कविता-कानन
उन्होंने कहा
उन्होंने कहा- दिन
हम कलेवा करके काम पर निकल गए
उन्होंने कहा- रात
हम ब्यारी करके सोने चले गए
उन्होंने कहा- गुलामी
हम बिकने के लिए मंडी में जाकर खड़े हो गए
उन्होंने कहा- आज़ादी
हम गुलामों की तरह उनके पीछे लग गए
और अपना सर्वस्व होम कर दिया आज़ादी के लिए
उन्होंने कहा- निर्माण
हमने अपनी हड्डियाँ गला दीं
ताकि वे इस्पात बना सकें
उन्होंने कहा- विध्वंश
और हम अपने ही बिरादरों पर
बम-बन्दूक लेकर चढ़ दौड़े
आखिर हमें परंपरा ने सिखाया था
बड़ों का आदर करना
उनकी कही बात पर शंका नहीं
सिर्फ अमल करना
और हम मान जाते।
वे बैठने को कहते तो हम साष्टांग लेट जाते
परन्तु,
जब हमने कहा- भूख
उन्होंने कहा- कामचोरी
हमने कहा- गरीबी
उन्होंने कहा- नशाखोरी
हमने तंग आकर कहना चाहा- शोषण
उन्होंने कहा- बगावत?
हमने कहा- अधिकार
उनका नारा- विकास
हमने माँगी रोटी और कहा संघर्ष
उन्होंने निकाली- बन्दूक
और हम, हम न रहे
ख़बर बन गए
अख़बार की।
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मेरा गाँव, मेरा देश
मेरा गाँव, मेरा देश नहीं है
और न मेरा देश, मेरा गाँव
गोकि, मेरे गाँव का लम्बरदार भी
रिमोट से संचालित करता है
गाँव की पंचायत सरकार को
मेरे गाँव में भी आते हैं
चुनाव के मौसम
वादों के पानी से सींचकर
वोटों की फसल कटती है
मेरे गाँव में भी
साहूकार हैं
बैंक हैं, ज़मीन है
ज़मीन है तो विकास की संभावनाएं भी
मेरे गाँव में भी
जाति के नाम पर अत्याचार हैं,
आरक्षण का विरोध है,
मंदिर बनाने की लालसा
और सामूहिक/ व्यक्तिगत बलात्कार भी
मेरे गाँव में भी एक प्राथमिक शाला है,
दो अध्यापक और पचास-साठ बच्चे
जिनके बीच पढने-पढ़ाने का कोई रिश्ता नहीं
मेरे गाँव में भी काम माँगते खाली हाथ हैं,
अनाज माँगते पेट,
जवाब माँगते सवाल
पर उत्तर नहीं देता कोई
अलबत्ता
सैकड़ो मोबाइल फोन,
पचासों मोटर साइकिल,
रंगीन टी वी, सी डी प्लेयर,
दर्ज़नो मोटर कार
और रेफिर्ज्रेटर मिल जाते हैं
अपनी ज़मीन,
कंपनियो को दो तो लाखों नकद भी
प्रधानमंत्री की सड़क भी बन गई है
जिससे हर सवाल का जवाब माँगने
शहर जाते हैं लोग
और फिर लौट कर नहीं आते।
– सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय