कविता-कानन
आवाहन
कौन सी लोरी सुनाऊँ तुम्हें?
मेरी प्यारी बिटिया रानी, जाने भी दो।
आज मन नहीं है गाने का,
कुछ और सुनाती हूँ।
एक पते की बात बताऊँ?
कर्ज बड़ा भारी है हम पर।
नानी का, दादी का, माँ का और मौसी का,
बुआ, मामी और चाची का भी।
रिवाजों की आग में
जलकर ख़ाक हुए हैं जिनके सपने।
चौका बरतन करते, मिट चुकी है
जिन की हथेलियों की लकीरें।
फटी एडियों का दर्द सहते-सहते
सूखा लिए हैं जिन्होंने अपने आँसू।
घूँघट की आड़ में।
सिकुड़ गया है जिन का अस्तित्व
और जिन्होंने
नारी होने की सजा भुगती है आजीवन।
मेरी लाड़ली बिटियारानी,
कर्ज बड़ा भारी है हम पर!
इसीलिए मेरी कोख में ही
पूर्णतया सुरक्षित कर लिया था मैंने तुम्हें।
ज़िंदगी है हक़ की लड़ाई,
शिक्षा दूंगी मैं तुम्हें।
आग्नेयास्त्र बन लड़ेंगे हम
उस अन्याय के खिलाफ़,
जो सदियों से होता आया है नारी के साथ।
एक बार फिर
उजागर करेंगे उस सत्य को-
पुरुष है परिवार का कर्ता तो
नारी है परिवार की धरोहर।
काल के खंडहर में छिपी
उस सभ्यता को ढूंढ निकालेंगे
जिस में नारी है श्रेष्ठ।
उखाड़ फेंकेंगे अपनी जमीं से
उन जड़ों को
जिसने खोखली कर दी है
हमारे अस्तित्व की बुनियाद!
तबदील होंगी हमारी यह मुहिम
एक ऐसे कारवाँ में कि
चलेंगी दिशाएँ हमारे साथ,
बहेंगी हवाएँ हमारे संग!
हम रचाएँगे एक नया आसमान,
इस पुराने समाज को देंगे
एक नया आयाम!
मेरी प्यारी राजदुलारी
किश्तों में ही सही
उतार ही देंगे एक दिन
यह कर्ज जो हम पर है,
उतार ही देंगे एक दिन!
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ऐसा क्या है तुममें
ऐसा क्या है तुममें
तुम्हारे अपनों की सूची में
कहीं भी
अंकित नहीं है मेरा नाम,
तुम्हारे घर से निकला कोई रास्ता
मेरे घर तक नहीं आता,
कोई वादा
नहीं किया तुमने
कि मेरे साथ चलोगे तुम
फिर
ऐसा क्या है तुममें
कि
रच लिए मैंने
इतने सपने नयन में?
– मल्लिका मुखर्जी