कविता-कानन
असाधारण बच्चों की साधारण माँएं
ये जो बच्चे
बड़े होते हैं
अलग-अलग क्षेत्रों में
अपनी पहचान बना रहे असाधारण बच्चे
बहुत साधारण लोगों के बच्चे होते हैं
बहुत साधारण होती हैं उनकी माँएं
सामने के दाँत बाहर निकले हुए
साधारण-से नैन नक्श
पतली-सी वेणी पीछे की ओर गुँथी हुर्इ
और कुछ कच्चे-पक्के इधर-उधर बिखरे बाल
बच्चे जब बड़े कहलाने लगते हैं
अलग-अलग मौकों पर लोग तालियाँ बजाते हैं
मेडल और प्रमाण पत्र दिये जाते हैं
कुछ छोटे-बडे़ तोहफों से नवाज़े जाते हैं
खुश हो जाती है इनकी माँएं
चेहरों पर चस्पां खुशी
साधारण-से चेहरे को थोड़ा सुन्दर बना देती है
बाहर निकले दाँत उतने बदसूरत नहीं लगते तब
और तभी ये अपनी पेटियों से निकालती हैं
दिनों से सहेज़कर रखी गुलाबी साड़ी
कुछ सितारे भी टँके रहते हैं जिसमें
साँझ ढलने से पहले
सब्जी काटती हुर्इ ये माँएं
चुपके-से बताती हैं अपनी पड़ोसी सहेली को
कि क्यों वे अपने बच्चों को
घर के काम से मुक्त रखती हैं
और ये कि उनकी बेटियाँ
चाय से ज्यादा कुछ नहीं जानती बनाना
ये माँएं सारा दिन अकेले ही खटती हैं
और सहेजती है सपने
बच्चों के बड़े होने के
उनके सफल होने के….।
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पिता
बच्चों की किताबों में
होती हैं
अच्छे पिताओं की कहानियाँ
और उनके चित्र भी
बच्चे ढूंढते हैं
अपने पिता को
अच्छे पिताओं के बीच
पर क्या
एक-से होते हैं सारे पिता-
अच्छे और केवल अच्छे
या
बच्चों के लिए
केवल अच्छे ही होते हैं पिता-
बच्चों के पिता?
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डर
बेटी का कद बढ़ रहा है
लगता है जैसे
मुझसे ज़्यादा पता है बाज़ार को
बेटी के बड़े होने का
बेटी का कद बढ़ रहा है
साथ-साथ कद
बढ़ रहा है
मेरे डर का!!
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सरकारी स्कूल
नहीं, यह कथा उन स्कूलों की कथा नहीं
जिन स्कूलों की दीवारें हैं सीधी खड़ी
छत टपकते नहीं घनी बारिश में भी
जिन स्कूलों के बच्चे खुले में पेशाब करते नहीं
और जिनकी टॉयलेट से भयंकर बदबू आती नहीं
नहीं, यह कथा उन स्कूलों की कथा भी नहीं
जिनकी कक्षाओं में पहली से पाँचवी तक के बच्चे
एक साथ बैठते या खड़े होते नहीं
जिनका रसोइया या चपरासी उन बच्चों का शिक्षक नहीं
जिनके बच्चों की शिक्षिका घर बैठी वेतन पाती नहीं
और जिन स्कूलों में किराये के शिक्षक पढ़ते-पढ़ाते नहीं
नहीं, यह कथा उन स्कूलों की कथा नहीं
जिन स्कूलों की दीवारें हैं चिकनी
लाल-पीली-नीली-हरी-सफेद रंगों से पुती हुई
कक्षाएँ बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ खुली-खुली
फूलों की क्यारियाँ हों जहाँ
आती-जाती हो हवा महकती
उन स्कूलों के लिए ये पंक्तियाँ नहीं
बड़ा-सा हो मैदान, झूले हो जहाँ
रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ती हों
साथ उनके दूर आसमान में उड़ रही चिड़ियां
झुक आयी हों कुछ नीचे केवल इसलिए कि
बच्चे खेल रहे हों मस्त
नहीं, यह कथा उन स्कूलों की कथा भी नहीं
जहाँ सड़े हुए अनाज की बोरियाँ नहीं
जहाँ निकल आई हों आलू की अनगिनत आँखें
आटे के बोरे में बिलबिलाते कीड़े नहीं
जहाँ गाय-बैलों की आवाजाही की खुली छूट नहीं
बकरियाँ और मेमेने मे-मे करती बच्चों के सुर में सुर मिलाते नहीं
जहाँ टूटे हत्थे की कुर्सी में बैठता ऊंघता शिक्षक
सुरती या गुटके की जुगाली करता नहीं
यह कथा उन स्कूलों की कथा नहीं…।
– भास्कर चौधुरी