कविता-कानन
अब भी मौजूद हूँ
मैं तय ही नहीं कर पायी अब तक
किस नाम से याद करूँ तुम्हें
तुम्हारे सारे नाम
कोष्ठकों में बंद हैं
तुम्हारे सभी नामों के अक्षरों पर
खून के छींटे पड़े हैं
मुझे कोई मुक्त नाम चाहिए तुम्हारा
कोई बेदाग़ नाम चाहिए मुझे तुम्हारा।
मैं कभी नाम नहीं था
जिन नामों पर तलवारें चलीं वो मैं कहाँ था?
जिस अल्लाह के नाम पर विस्फोट हुए
वो तो उन्हीं में उड़ गया।
जिस राम के नीचे पत्थर गिरे
वो तो उन्हीं में दब गया।
सारे नाम जो मुझे दिए गए
कहीं कट चुके हैं,
कहीं दब चुके हैं,
मर चुके हैं कहीं।
मैं बेनाम…. अब भी मौज़ूद हूँ
तुम्हारे दिलों में
मैं एक आस
अब भी मौज़ूद हूँ
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मौजूदगी तुम्हारी
अलसुबह बर्तन खंगाल
ताजा पानी भरते हाथों की आवाज़,
बिस्तर में पड़े-पड़े सुनना
तुम्हारी मौज़ूदगी है।
चाय हाथों से नहीं बनती
पर नरम हाथों की खुश्बू वाली
वो अदरकी चाय
तुम्हारी मौज़ूदगी है।
बार-बार उठने का उलाहना देना
देती हो तुम,
किस उलाहना पर उठ बैठना है
समझकर उठ जाना
तुम्हारी मौज़ूदगी है।
काम वाली के आने की चिंता
आज के खाने की चिंता
और इस चिंता का स्वर
कभी धीमे कभी तेज़ होता
नेपथ्य में
मौजूदगी है तुम्हारी।
माँ कभी थकती नहीं
बूढ़ी नहीं होती
और मरती तो है ही नहीं
ज़िंदा रहती है
सच में और
फिर यादों में भी।
– डॉ. ज्योति जोशी