कविता-कानन
अधिकार की परिभाषा
जब देखती हूँ
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा, भाषा और संस्कृति को
बैकवर्ड थिंकिंग कहकर ठहाके लगाती,
नीला, लाल, हरा और किसिम-किसिम से
रंगे, कटे, केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप,
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
सर्टिफिकेट मानती,
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-उन्मुकक्ता को आज़ादी का मापदंड मानती,
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने के स्वार्थ में,
अपने बुज़ुर्गों के प्रति संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की होड़ में दिशाहीन
आधा तीतर, आधा बटेर हुई
बेटियों को देखकर
सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की आज़ादी
और समानता की?
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सृष्टि के विराट रुप का साक्षात्कार
प्रसूति-विभाग के भीतर-बाहर
साधारण-सा दृष्टिगोचर
असाधारण संसार
पीड़ा में कराहते
अनगिनत भावों से
बनते-बिगड़ते,
चेहरों की भीड़
ऊहापोह में बीतता प्रत्येक क्षण
तरस-तरह की मशीनों के
गंभीर स्वर से बोझिल
वातावरण में फैली
स्पिरिट, फिनाइल की गंध से
सुस्त, शिथिल मन,
हरे, नीले परदों के उस पार
कल्पना करती
उत्सुकता से ताकती
प्रतीक्षारत आँखें
आते-जाते
नर्स, वार्ड-बॉय, चिकित्सक
अजनबी लोगों के
ख़ुशी-दुख और तटस्थता में लिपटे
चेहरों की परतों में टोहती
जीवन के रहस्यों और
जटिलताओं को,
बर्फ जैसी उजली चादरों पर
लेटी अनमयस्क प्रसूता
अपनी भाव-भंगिमाओं को
सगे-संबंधियों की औपचारिक भीड़ में
बिसराने की कोशिश करती
अपनों की चिंता में स्वयं को
संयत करने का प्रयत्न करती,
प्रसुताओं की नब्ज टटोलती
आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित
अस्पताल का कक्ष
मानो प्रकृति की प्रयोगशाला हो
जहाँ बोये गये
बीजों के प्रस्फुटन के समय
पीड़ा से कराहती
सृजनदात्रियों को
चुना जाता है
सृष्टि के सृजन के लिए,
कुछ पूर्ण, कुछ अपूर्ण
बीजों के अनदेखे भविष्य के
स्वप्न पोषित करती
जीवन के अनोखे
रंगों से परिचित करवाती
प्रसूताएँ
प्रसूति-कक्ष
उलझी पहेलियों
अनुत्तरित प्रश्नों के
चक्रव्यूह में घूमती
जीवन और मृत्यु के
विविध स्वरूप से
सृष्टि के विराट रुप का साक्षात्कार है।
– श्वेता सिन्हा