कविता-कानन
अंत
अंत में सिर्फ सत्य रह जाता है
कड़वा और अकेला
और ढह जाती है
तमाम दीवारें पूर्वाग्रहो की
रेत के बने झूठ के महल
और तुम बन जाते हो
जो तुम हो
कितने आवरणों,
कितने मुखौटों के नीचे
सच नहीं है किसी चित्रकार-सा
जो भर दे जीवन चित्र को मनचाहे रगों से
या फिर किसी कवि-सा
जो शब्दों के जादू से नये मायने बना दे
और सच में
ये नहीं सीख पाया हमसे
बहलाना और फुसलाना
अब तक यही सुना था कि अंत में
सब कुछ धुंधला हो जाता है
या फिर स्याह
पर सत्य तो है किसी सूर्य के समान
जो अपनी किरणों से
दूर हटा देता है धुंध को
अंत को उदय में बदल कर
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ख्व़ाब
ढूंढते तो होंगे उन्हें वो गलियारे
जहाँ कभी वो ख्व़ाब
जागा करते थे चाय की चुस्कियों में
कभी उमंगों की जम्हाईयां भरते अलसाये,
कभी मेघदूत के पन्नो पर प्रणय का सफ़र करते
और कभी समाजवाद की पंक्तियों में
लोगों को उनका हक दिलाते
अन्याय के ख़िलाफ़ बिगुल बजाते
कभी बुद्ध की शिक्षाओं में पहुंच कर
आत्मदीप को ज्वलित करते
अब शायद वो ख्वाब दबे पड़े हों
किसी राशन की दुकान में
आटे और नमक के भाव के तले,
कहीं बच्चो की स्कूल की फीस की
किसी रसीद के नीचे
या सरकारी दफ्तरो में
अपनी किसी फाईल को पास कराने के लिये
दी गई रिश्वत का बोझ उठाते
अपनी मृत्यूशय्या पर
पर ये भी हो शायद
वो पुर्नजीवित हो रहे हों
कहीं और, किन्हीं और गलियारों में
नन्हे हाथों की नयी आशाओं में
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उम्मीद
आँखें, झांकती हैं, जिज्ञासावश
वो जो निश्चल है, निर्मल है
मनोभावों की मौन स्वीकृति को देता है
उम्मीद पूर्णता की
टूटे हुए क्षणों की क्षतिपूर्ति का आभास भर
गहराते मन को भरता है रगों से
कि सबसे सात्विक मन भी कभी ना कभी तो
तलाशता होगा एक तास्मिक जिस्म
नहीं, ये कोई प्रतिस्पर्धा नहीं
ना ही घट रहा है परिस्थितीवश
परिणाम है ये उस दिव्यस्वपन का
जो यथार्थ के टूटे हुए खंहडरों में
ढूंढ रहा है सुनहरे कल को
हर इक बिखरे हुए, सहमे से पल से
सहेज कर उस ज्ञान को
जो पूंजी है क्षण-भंगुर जीवन की
सारांश यही है उस ज्ञान का
मैं स्वयं ही उम्मीद हूँ
स्वयं के लिए
– हरदीप सबरवाल