मनु स्मृति में श्लोक है –
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।
मनुस्मृति ३/५६ ।।
यानी जहां नारियों की पूजा होगी वहां देवता निवास करेंगे और जहां नहीं होगी वहां सभी कार्य निष्फल हो जाएंगे।
अगर इस श्लोक के कहे अनुसार चला जाए तो इस पूरी सृष्टि को और इस पर होने वाले सभी कार्यों को निष्फल हो जाना चाहिए। मनुष्य को चतुष्फल की प्राप्ति ही न हो फिर। लेकिन आज भारत जिस विकास की ताल पूरे विश्व में ठोक रहा है और विश्व के शीर्ष देशों में शामिल होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, उसे अपने समक्ष नग्न आंखों से देखे जाने वाले तथ्यों पर भी नजर रखनी चाहिए।
दरअसल आज देश में कई मौलिक समस्याएं है जिनमें पानी, बिजली ,सड़क, रोजगार आदि प्रमुख है। ऐसी ही समस्याओं के बीच एक ऐसी समस्या भी है जिस पर हमारा ध्यान कभी जाता नही। सम्भवतः हमने सोच लिया है कि उस ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं। यह समस्या आजादी पूर्व तो ठीक-ठाक स्थिति में थी किंतु आजादी उपरांत वह बदतर होती चली गयी। यह समस्या है स्त्रियों की समाज में मौजूदा स्थिति।
आज हमारे देश का लिंगानुपात रूस, ब्राजील, अमेरिका, जापान जैसे विकसित तथा इंडोनेशिया, नाइजीरिया, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों की तुलना में काफी कम है। गौरतलब बात तो यह है कि भारत में जो लिंगानुपात 1901 में 1000 पुरुषों पर 972 था वह आजादी 1947 के बाद से 946 से कभी ऊपर ही नही आया।
देश में राज्य स्तर पर भी लिंगानुपात में भारी असमानताएं दिखायी देती हैं। केरल जिसका लिंगानुपात 1084 है भारत का एकमात्र राज्य है जहाँ स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। इसके विपरीत हरियाणा व पंजाब, जो आर्थिक स्थिति से काफी सम्पन्न राज्य है, में लिंगानुपात क्रमशः 877, 893 है। जिस राज्य में मैं रहता हूँ यानी कि मध्यप्रदेश वहां भी लिंगानुपात 931 है तथा 0-6 वर्ष की आयु समूह में सबसे कम बालिकाओं का प्रतिशत 13.85% गुजरात, व सबसे अधिक मेघालय 19.81% है। वहीं म.प्र. में यह आंकड़ा 17.68% ठहरता है। निम्न लिंगानुपात स्त्रियों के प्रति भेदभाव तथा उच्च शिशु हत्या दर का सूचक भी है।
यहाँ इस समस्या का मूल हल देश की साक्षरता में हैं क्योंकि लिंगानुपात कम होने का मुख्य कारण सामाजिक- सांस्कृतिक परम्पराएं तथा जन्म से पहले भ्रूणों की लिंग जांच है। आज जहाँ उच्च लिंगानुपात है उस केरल की साक्षरता दर 94% है एवं सबसे कम लिंगानुपात वाले राज्यों की साक्षरता दर 75.6% ,75.8% है। नेल्सन मंडेला ने कहा है – ‘शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसे आप दुनिया को बदलने के लिए उपयोग कर सकते है।’ लेकिन ऐसे रूढ़िवादी समाज में जहां हम रह रहे हैं, हमें देर-सवेर ऐसी कई घटनाओं से दो चार होना पड़ता है जहाँ कोई नवजात बालिका नाले में मिलती है या उसके शव को जानवर घसीट रहे होते हैं। आज यह बुराई हमारे समाज में घर कर के बैठ गयी है जो कि हमारे समाज के लिए भविष्य में ओर भी अधिक कष्टदायक साबित होगी।
मार्कस औरेलियस कहते हैं – ‘वो जो मधुमक्खी के छत्ते के लिए ठीक नही है वो मधुमक्खी के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता है।’ हालांकि 19वीं सदी में विभिन्न समाज सुधारकों के तमाम प्रयासों एवं आजादी के संघर्ष के दौरान तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात किये गए प्रयासों के बावजूद वर्तमान में उनकी स्थिति पुरुषों तुलना में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा शैक्षणिक रूप से अत्यंत कमजोर है। इसके पीछे मुख्य कारण साक्षरता के साथ साथ राजनीति में उनकी उचित सहभागिता का अभाव है। जिसकी पुष्टि इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की रिपोर्ट के माध्यम से की जा सकती है, जिसके अनुसार भारतीय संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत दुनिया के 193 देशों में 148 वें स्थान पर है।
इसी प्रकार आर्थिक रूप से महिलाओं की निःशक्तता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में उनका योगदान वैश्विक जीडीपी का केवल 37 फीसदी है एवं यदि भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो जीडीपी में महिलाओं का योगदान महज 17 फीसदी है। सिर्फ यह कहना उचित नहीं कि स्त्री समाज में नि:शक्त है अथवा वह सदा अपने अधिकारों से वंचित ही रही। कुछ ऐसी भी स्त्रियां है जिन्होंने अपने देश, समाज का प्रतिनिधित्व किया है। किंतु हम यह कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते कि समाज में महिलाओं की स्थिति सुधर चुकी है जबकि यह उस सुधार का मामूली अंश भर है। हम इनके सहारे समाज की हर महिला को शिक्षित अथवा आत्मनिर्भर कैसे कह सकते है?
वो भी ऐसे में जब वर्तमान दौर में महिलाओं की पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के बात आती है तब देश में ‘महिला कल्याण’ के लिये गठित महिला आयोग के ही सदस्य कई बार महिलाओं पर इस तरह की टिप्पणी कर देते है जिनकी उनसे उम्मीद करना बेमानी होती। यह ठीक उसी तरह है जिस तरह खाप पंचायतों में बिना सिर पैर के निर्णय दिये जाते हैं। हालांकि महिलाओं की सुरक्षा एवं उनकी वर्तमान स्थिति में सुधार करने के लिए अनेक विधायी प्रयास भी किये गए। यथा- कार्यस्थल पर महिलाओं पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013, PCPNDT ACT, बाल विवाह रोकथाम अधिनियम 2006 IPC 354, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट आदि। जिनसे महिलाओं की स्थिति पूर्व की तुलना में सुधरी है किंतु अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। हम सिर्फ इन कानूनों के भरोसे नही बैठ सकते है। हमें स्वयं को बदलना होगा, लोगों को शिक्षित करना होगा जिससे वे किसी के अधिकार का ना तो दमन करें और ना ही अपने अधिकारों का दमन करने दें।
इस संदर्भ में जब-जब महिलाओं की बात होती है तब-तब स्थिति ज्यादा संवेदनशील हो जाती है। क्योंकि समाज में अधिकांश पुरुष स्त्रियों को स्वयं से कमतर आंकते है, ऐसे में उनसे महिलाओं के लिये अधिकार माँगना आसान न होगा। इसे आसान बनाने का सिर्फ एक ही रास्ता है- ‘शिक्षित समाज।’
महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण की पहल हमारे आने वाले कल हमारे भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
डॉ. अंबेडकर ने कहा था – ‘किसी समुदाय की प्रगति का मापन उस समुदाय की स्त्रियों की प्रगति के स्तर के आधार पर किया जा सकता है।’
तो मनु स्मृति ही यह भी कहती है कि
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।
मनुस्मृति ३/५७ ।।
यानी जिस घर या कुल में स्त्री शोकातुर होकर दुःख पाती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है और जिस घर या कुल में वह आनन्द से रहती है वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है।
इसलिए स्त्रियां न निःशक्त थी न ही सशक्त वे तो इन दोनों का सामंजस्य है, इन दोनों ही खांचों में फिट। बस जरूरत है तो उसे थोड़ा सा उधर से इधर धकेलने की। उसके बाद वह पुनः अपने उसी रूप, स्वरुप को पा जाएगी जो शास्त्रों में वर्णित है या शास्त्रों में जैसा उसके बारे में लिखा गया है।