प्लास्टिक सर्जरी रेजिडेंसी के दौरान, मैंने एक डॉक्टर के रूप में, बर्न वार्ड में आई महिलाओं के बयान दर्ज करता, फिर पुलिस और मेजिस्ट्रेट नोट करते। अधिकतर महिलायें आत्महत्या के इरादे से बहुत बड़ी मात्रा में जली हुई होती थीं। एक बार इनमें से एक महिला के पास गया और पूछा, ‘बहन, यह कैसे हुआ?’ उसने जो जवाब दिया, एक कवि के रूप में उसके शब्दों को इस नज़्म (गुजराती) में लिखा। — डॉ. श्यामल मुन्शी
मूल गुजराती रचना – डॉ. श्यामल मुन्शी
हिन्दी अनुवाद -मल्लिका मुखर्जी
आग
बिंदी, मेहंदी, हल्दी का तो रंग बड़ा था कच्चा,
आज बदन पर लगा जो काला, रंग वही है सच्चा।
आजकल की बात नहीं कि मैं अचानक जली,
बरसों का कलह था यह तो, आज ठंडक मिली।
बेटा होती जन्म से गर मैं, होती अलग ही बात,
मिली मुझे चकमक जैसी ज्वलनशील यह जात।
दहेज के गहरे कुएं में, बापू ने लगाई डुबकी,
उस पल मेरे अंतर्मन में पहली चिंगारी भड़की।
नैहर के कोमल स्नेह को मैंने अक्सर गले लगाया,
सहती रही वार नफरत की पर खुद को नहीं जलाया।
जलते हुए संपीड़न में खो गया मेरा अस्तित्व,
धीरे धीरे बाष्पित होता चला मेरा व्यक्तित्व।
रंग बिरंगी मेरे सपने, जलकर हो रहे थे राख।
खुली पलकें चुपके से रोती, फिर जलती थी आँख।
रोक-टोक के धुए में जब साँसे घूटती जाती,
हर उच्छवास में तब मेरी छाती जलती जाती।
रोज हताशा रोज निराशा, रोज रोज का इंधन
जल जल कर आखिर में टूटा, मन का था जो बंधन।
सुलह की सारी लपटों ने जब उन आशाओं को छुआ,
अरमान भरे दिल में मेरे तब आग जली, फिर धुआं!
गलतफहमियां, टूटा भरोसा, सिकुड़ गया था साथ,
बिना प्यार के शुष्क बने जब, मैंने जलाए हाथ!
सदियों की यह परम्परा है, मैंने भी रीत निभाई,
मिट्टी तेल छिड़क दिया और सारी आग बुझाई!