हमारे भीतर एक समस्या है कि जो सोशल मीडिया पर एक बार ट्रेंड करने लगे लोग आंख मीचे उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। अब जैसे डिज़्नी प्लस हॉट स्टार पर आई वेब सीरीज ‘द एम्पायर’ को ही लीजिए।
लन्दन में रहने वाली लेखिका ‘एलेक्स रदरफोर्ड’ की लिखी बुक सीरीज़ ‘एम्पायर ऑफ़ द मुग़ल’ की पहली ही किताब ‘एम्पायर ऑफ़ द मुग़ल: राइडर्स फ्रॉम द नॉर्थ’ पर आधारित इस सीरीज में कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता कि मुगलों का महिमामंडन किया गया है। किताब को सीरीज़ में लिखने वाली इस लेखिका की छह किताबों में पूरे मुग़ल साम्राज्य को समेटा गया बताया जाता है। जिसमें यह भी लिखा मिलता है कि हिंदुस्तान में मुग़ल साम्राज्य की शुरुआत हुई थी बाबर से। लेकिन इस पर बनी वेब सीरीज का टीज़र और ट्रेलर देखकर इसे ‘इंडियाज़ आंसर टू गेम ऑफ़ थ्रोन्स’ जो कह रहे थे वे जरूर अपने शब्द वापस ले सकते हैं।
सीरीज की कहानी 15 वीं सदी के आस-पास घटित होती है। जिसमें यह बाबर के बचपन से शुरू होकर उसकी जवानी तक हमें लेकर जाती है। हालांकि इस बीच इसमें उसका अपनी जनता को लेकर चिंतित होना जरूर दिखाया गया है। जो इतिहास में ऐसा ज्यादा नहीं मिलता। लेकिन साथ ही उसके क्रूर व्यवहार को भी यह दिखाती है। यह हमारा उस दौर से परिचय करवाती है जब इतिहास में 14 साल की उम्र में बाबर को तख्त पर बिठा दिया गया था। राजनीति व षडयंत्र से दो-चार होते हुए बाबर समरकंद जीत लेता है। लेकिन उसे जल्द ही इसे खोना भी पड़ता है। मोहम्मद शयबानी के हाथों। दूसरी तरफ शयबानी सिर्फ इतने पर नहीं रुकता। वह बाबर और उसके खानदान की जान को बख्शने के लिए खानज़ादा बाबर की बहन को मांग लेता है।
शयबानी जो बाबर और उसके परिवार का नामों निशान मिटाने के लिए आतुर है क्या उसकी ये हसरत पूरी हो पाई? क्या सीरीज ने पानीपत की लड़ाई को भी कायदे से दिखाया? उसकी बहन खानजादा का क्या हुआ? बाबर का क्या हुआ? ऐसे कई सवाल आपको इस सीरीज में देखने को मिलते हैं।
इस वेब शो को लिखने वाले निखिल आडवाणी, भवानी अय्यर, मिताक्षरा कुमार, ए. एम तुराज़ की लेखनी की तारीफ़ें की जानी चाहिए। उन्होंने अपने लेखन में किसी भी किरदार को न ज्यादा हाइप दिया और न ही गिराया। सीरीज की कहानी इसकी सबसे अच्छी बात है। हर किरदार अपने साथ छल, फरेब, पश्चाताप लेकर चलता है। लेकिन बावजूद इसके वे किरदार न्याय कुछ कम ही करते हैं अपने किरदारों के साथ।
हर एपिसोड आपको अपने में जज्ब करके रखता है। कुछ सीन्स को बिना बात ड्रामेटाइज़ करने और वीएफएक्स की तमाम हल्की-फुल्की लेकिन भारी कमियों के बावजूद। इतिहासपरक सिनेमा में सबसे अहम जो पहलू होता है वह है उनके कपड़े-वेशभूषा, आभूषणों, मेकअप संवाद और उन डायलॉग्स की डिलीवरी के साथ-साथ बड़े-बड़े आलीशान महल, जो यहां भी आपको देखने को मिलते हैं और साथ ही मनभावन लगते हैं।
सिनेमैटोग्राफी, लाइटिंग, कलरिंग, सीरीज का लुक, बैकग्राउंड स्कोर सबसे उत्तम रहे, कुछ बर्फबारी वाले सीन्स को छोड़ दें तो। इसके अलावा सीरीज में युद्ध और मारपीट के सीन बेहद कम है, ये थोड़े और रखे जाते तो बेहतर होता। सम्भवतः सीरीज के दूसरे सीजन में ये सब नजर आएं। एक्टर्स की एक्टिंग के मामले में बाबर बने ‘कुणाल कपूर’ बहन खानज़ादा बनी ‘दृष्टि धामी’ , वजीर खान बने ‘राहुल देव’ , मुहम्मद शयबानी बने ‘डिनो मोरेया’ , बाबर की नानी के रोल में एसान दौलत बेगम बनी ‘शबाना आज़मी’
‘इमाद शाह’ , ‘आदित्य सील’ आदि ने अच्छा काम किया। सभी एक्टर्स अपने किरदारों से न्याय करते नजर आते हैं।
निर्देशक मिताक्षरा कुमार ने कहानी को इतिहास के करीब रखने से कहीं ज्यादा उसे भावनाओं के मिश्रण से बांधने का काबिल-ए-तारीफ़ काम किया है। लेकिन गैर जिम्मेदाराना कुछ गलतियां भी सीरीज में नजर आती है। जैसे सीरीज भी कहती है ‘अपनी उन गलतियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना कितना आसान है न।’ तो इस सीरीज के पहले सीजन के लिए उठाए गए विवाद मुझे बेबुनियाद से लगे।
जैसे ‘मां की हिफाजत उसके बेटे का फर्ज है। जो अपनी मां की हिफ़ाजत नही कर सकता वो सल्तनत की हिफाजत क्या करेगा।’ ठीक वैसे ही हमें अपने ऐसे इतिहासों को दफ्न करने के बजाए संजो कर रखना चाहिए ताकि बाबर जिसका दिल हमेशा जंग के मैदान के लिए तड़पता है और वही जो एकमात्र मकसद है उसका। वह हमें सदियों तक याद रहे। यह सीरीज हमें मुगलों द्वारा की गई इंसानी खुदगर्ज़ी और उनके द्वारा की गई बेरहमियाँ भी बराबर दिखाती चलती है। इसी सीरीज से एक लाइन लेते हुए कहूँगा ‘किसी की शख्सियत नहीं इरादे देखने चाहिए।’ तो इस दुनिया में सबने अपनी-अपनी मर्जी से इतिहास लिखा है और सबको अपनी रुचि का इतिहास पढ़ने, देखने में आंनद आता है। सीरीज को बिना किसी पूर्वाग्रहों के देखेंगे तो आपको अवश्य पसन्द आएगी। हां ‘पद्मावत’ का खिलजी और उस फ़िल्म जैसी भव्यता भी नजर आएगी।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार