“सिंधु नदी से सागर तक हम एक ही हैं। हमारी एक ही आइडियोलॉजी होनी चाहिए हिंदुत्व। हिंदुत्व हिन्दू धर्म नहीं है और सनातन धर्म भी हिन्दू धर्म का केवल एक हिस्सा है। इसमें लिंगायत है, सिख हैं, आर्य समाजी हैं। सिख तो सबसे बड़े हिन्दू हैं, जिन्होंने ढाल बनकर इस हिन्द को बचाया है। असल में हिन्दू कौन हैं? सिंधु नदी से सागर तक इस विशाल भारत भूमि में जो इसको अपनी पितृभूमि माने यानी अपने पूर्वजों की जमीन, मातृभूमि यानी अपनी संस्कृति, भाषा, खान-पान, त्योहारों को अपना माने वो हिन्दू है। हिंदुत्व एक राजनैतिक, भौगौलिक, सांस्कृतिक इतिहास है, किसी धर्म का नहीं।” यह संवाद है इस शुक्रवार रिलीज हुई फिल्म स्वातन्त्र्य वीर सावरकर फिल्म का, जिसे बोल रहे हैं वीर सावरकर बने रणदीप हुड्डा।
पहली बात रणवीर हुड्डा की इस फिल्म के निर्देशन की कर ली जाए। रणदीप ने अपनी पहली ही फिल्म से जो एकदम सटीक और सधा हुआ निर्देशन किया है और अपने सहयोगी लेखक के साथ मिलकर इसका जो लेखन किया है वही इनकी सबसे बड़ी मजबूती है।
ब्रिटिश भारत से लेकर वर्तमान भारत के इतिहास तक में वीर सावरकर एकमात्र ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें लेकर इस देश में आज भी चर्चाएँ गर्मजोशी से होती हैं। एक सिक्के के दो पहलू की भांति वीर सावरकर को भी इस देश-दुनिया के लोग अपने-अपने ढंग से देखते, सोचते और समझते हैं।सावरकर यानी विनायक दामोदर सावरकर के बारे में लोगों की यह अलग-अलग सोच इस बात को भी दर्शाती है कि यह सोच उनकी बनी किन आधारों पर है। यकीनन भारत देश में सावरकर को लेकर लोगों को आज भी सही और सटीक जानकारी नहीं होगी। सावरकर के विचारों और उनकी किताबों के अलग-अलग मतलब भले ही निकाल लिए गए हों परन्तु यह फिल्म एक प्रामाणिक दस्तावेज बनकर उभरी है।यह फिल्म अंग्रेजों के द्वारा हम भारतीयों पर किये गये हर जुल्मों-सितम को करीब से और कायदे से दिखाती है। कोर्ट के सीन हों या तत्कालीन समय के भारत और ब्रिटेन की लोकेशन या सेल्युलर जेल (काला पानी) तमाम चीजों को बतौर निर्देशक रणदीप हुड्डा ने कायदे से फिल्म में दिखाया है। गांधी, नेहरु, जिन्ना, सुभाष चंद्र बोस, सावरकर का परिवार इत्यादि हर लोग किरदार नहीं जब असल में खुद वह व्यक्तित्व के रूप में दिखने लगे तो सावरकर जैसी फ़िल्में प्रमाणिक दस्तावेज बन ही जाती हैं। दो-दो बार सावरकर को कालापानी और आजीवन कारावास की सजा के दृश्य, जेल के भीतर का माहौल, ब्रिटिश साम्राज्य, तत्कालीन भारत आदि जैसे हरेक दृश्यों पर अलग से बात होनी चाहिए। सावरकर जैसे क्रांतिकारियों पर बनी ऐसी फिल्मों को बार-बार देखा जाना चाहिए।शुरुआत में काफी थमी सी यह फिल्म जब एक बार अपनी गति और लय पकडती है तो उसे छोड़ती नहीं। छोड़ती भी है तो आपको अंत में ले जाकर उस सच से रूबरू करवाते हुए जहाँ आप स्क्रीन पर कई सारी बातें लिखी हुई पढ़ते हैं। यह फिल्म अकेले सावरकर को नहीं बल्कि तत्कालीन समय के पूरे भारत और अन्य क्रांतिकारियों को भी आराम से बताते हुए तीन घंटे का समय लेती है।उत्कर्ष नैथानी और रणदीप हुड्डा ने फिल्म को बनाने से पहले जो घोर शोध इस फिल्म के लिए किया होगा उसी का परिणाम है स्वातन्त्र्य वीर सावरकर। कॉस्टयूम से लेकर लोकेशन, कैमरा एंगल, एडिटिंग, अभिनय, साउंड, गीत-संगीत , लाइट्स, बैकग्राउंड स्कोर से जो विजुअल स्क्रीन पर उभरकर आते हैं वे आपको वीर सावरकर को करीब से देखने का मौका देते हैं तथा उन जैसे अन्य तमाम क्रांतिकारियों पर गर्व करवाते हैं। जब किसी फिल्म के हर किरदार अपने दिल, दिमाग और आत्मा से इस कदर उनमें रच बस जाए जिन्होंने सचमुच इस देश को आज़ाद कराने में योगदान दिया तो यह अपने समय की महानतम कलाकृति बन जाती है।
अंकिता लोखंडे, राजेश खेरा, लोकेश मित्तल,बृजेश झा, संतोष ओझा, जय पटेल, अमित सियाल, खुद निर्देशक रणदीप हुड्डा इत्यादि खूब प्रभावशाली नजर आते हैं। इतिहास की एक मुकम्मल और मजबूत कहानी जब तीन घंटे तक पर्दे पर चले तो जितनी ख़ुशी होती है उतना ही अफ़सोस कि इसे किसी वेब सीरीज का रूप क्यों नहीं दिया गया। अगर ऐसा किया जाता तो इतिहास के और भी कई पहलू इतनी ही सटीकता से देखने को मिलते।
अपनी रेटिंग- 4 स्टार
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